Editorial : बिहार में राजनीतिक उथल पुथल

चुनाव दूर होने के बावजूद बिहार की राजनीति में उथल पुथल के संकेत मिलने लगे हैं। आज ही खबर आई है कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने नीतीश मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया है। हालंकि उन्होंने एक व्यक्ति एक पद के फार्मूले वाली बात कही है, लेकिन इसे भाजपा की आगामी रणनीति का पहला कदम माना जा रहा है।
243 सीटों वाली विधानसभा के चुनावों को लेकर प्रचार अभियान की अनौपचारिक शुरूवात हो चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी का भागलपुर दौरा और घोषित की गई सौगातें इस बात का संकेत हैं कि हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के बाद अब बिहार भाजपा के निशाने पर है। अंदरखाने की खबर तो यह है कि भाजपा बिहार में पूर्ण बहुमत लाकर अपने बल पर सरकार बनाने की तैयारी में है, इससे नीतीश खेमे में खासी बेचैनी महसूस की जा रही है।
सात महीने के अंतराल में पेश किए गए दो केंद्रीय बजट में बिहार के लिए बुनियादी ढांचे के निवेश की घोषणा की गई। इसमें राजमार्ग, हवाई अड्डे, बाढ़ नियंत्रण और पर्यटन विकास शामिल हैं। इससे यह साफ जाहिर होता है कि नीतीश कुमार के दो दशक के शासनकाल में राज्य की विकास संबंधी चुनौतियों का समाधान नहीं हो पाया है। केंद्र ने बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने से इनकार कर दिया है। ये तथ्य कहीं न कहीं भाजपा की आगामी रणनीति की ही झलक हैं।
नीतीश कुमार पिछले एक दशक से भी अधिक समय से लगातार पलटने वाले राजनेता रहे हैं, पर खास बात यह रही है कि वह अधिकांश सत्ता में ही रहे। जब जरूरत पड़ी राजद के साथ मिलकर सरकार बनाई और जब आवश्यकता हुई, भाजपा के साथ चले गये। हाल फिलहाल वह भाजपा के साथ एनडीए का हिस्सा हैं और केंद्र की मोदी सरकार का एक खंबा बने हुए हैं। असलियत यह है कि समाजवाद और विकास के नाम पर ये बदलते गठबंधन एक गहरे विभाजित और असंतुष्ट मतदाताओं को दर्शाते हैं। प्रति व्यक्ति आय के मामले में लगातार निचले पायदान पर रहने वाले राज्य में वास्तविक कल्याणकारी लाभ दूर की कौड़ी हैं। राज्य के नेताओं के राजनीतिक नाटक से चकित और अप्रभावित मतदाताओं को अपने चुने हुए प्रतिनिधियों से और अधिक उम्मीदें हैं।
एक नजर महाराष्ट्र पर डालते हैं, जहां राज्य के दल लगातार राजनीतिक दबाव में बिखरते गए और भाजपा अपनी रणनीति में कामयाब हो गई, सत्ता हासिल कर ली। यह बात नीतीश कुमार के दिमाग में भी है और यही कारण है कि वह समय समय पर भाजपा को अपनी ताकत का अहसास भी कराते रहते हैं। लेकिन पिछली बार जब उन्हें दिल्ली बुलाकर भी प्रधानमंत्री नहीं मिले, तब यह राजनीतिक संदेश गया कि भाजपा बिहार चुनाव में नीतीश को हाशिये पर भेजने की तैयारी में जुट गई है। हालांकि पीएम मोदी ने हालिया भागलपुर रैली में नीतीश को एक तरह से मनाने की कोशिश की है।
माना जा रहा है कि इस बार मामला गंभीर हो गया है। भाजपा की तैयारी नीतीश कुमार को क्यों पता नहीं होगी, लेकिन फिलहाल साथ रहना उनकी मजबूरी है। फिर भी उन्हें अपने विकल्पों पर सावधानीपूर्वक विचार करना होगा। केंद्र सरकार ने उनकी विशेष राज्य की मांग को जिस तरह खारिज किया है, वह अलगाव का कारण भी बन सकती है, लेकिन इसमें अभी समय लगेगा। नीतीश अगला कोई भी दांव खेलने से पहले आगे की रणनीति बना लेते हैं।
हालांकि राजनीतिक जानकार तो यह भी कह रहे हैं कि नीतीश बिहार चुनाव के पहले केंद्र सरकार से समर्थन वापस भी ले सकते हैं, लेकिन अभी तो ऐसा लग नहीं रहा है। हां, चुनाव के समय यदि राजद के साथ कांग्रेस का हाथ थाम लें तो इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं होगा। यह सब परिस्थितियों पर निर्भर रहेगा। फिलहाल तो बिहार और केंद्र के संबंधों में आ रहे परिवर्तन पर प्रेक्षकों की नजर है।
संजय सक्सेना