Editorial
यूपी में उठापटक
लोकसभा चुनाव में देश का राजनीतिक नेतृत्व करने वाले उत्तरप्रदेश में भाजपा का प्रदर्शन इस बार खराब रहा, और इसे लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को निशाना बनाया जा रहा है। यूपी में अब सियासी उठापटक तेज होती दिख रही है। उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य सामने खड़े हैं। इंडिया में शामिल राजनीतिक पार्टियों ने यह दावा करना शुरू कर दिया है कि उत्तरप्रदेश में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। समाजवादी पार्टी के नेता तो यहां तक अटकलें लगा रहे हैं कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री पद से योगी आदित्यनाथ की छुट्टी हो सकती है।
असल में उत्तरप्रदेश में भाजपा को लगे झटके के बाद से लगातार यूपी के चुनाव परिणामों को लेकर मंथन किया जा रहा है। इसी सिलसिले में उत्तरप्रदेश के भाजपा अध्यक्ष भूपेन्द्र चौधरी को दिल्ली तलब किया गया। जहां उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के अलावा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ भी लंबी चर्चा की। उन्होंने उत्तरप्रदेश में भाजपा के प्रदर्शन के बारे में विस्तृत ब्यौरा दिया और भाजपा की सीटें कम होने कारण भी बताए।
इसके साथ ही योगी के खिलाफ मुखर केशव प्रसाद मौर्य को भी दिल्ली बुलाया गया। कथित तौर पर तो उन्हें हिदायत दी गई कि वे योगी के खिलाफ न बोलें, लेकिन उन्होंने नड्डा से मुलाकात के बाद फिर एक्स पर ट्वीट करके संगठन को सत्ता से अहम बताते हुए फिर तीर छोड़ दिया। केवल एक लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद ही यूपी भाजपा के लिए सर्वाधिक समस्या वाला राज्य बन गया है, ऐसा लग रहा है। ऐसी कई हकीकतें निकलकर सामने आ चुकी हैं, जो चार चुनावों की सफलता के पीछे छिपी थीं। देश के सबसे सफल और ताकतवर समझे जाने वाले मुख्यमंत्री अधर में हैं। न उन्हें पता है, न उनके समर्थकों-विरोधियों को कि उनकी सत्ता कितने दिन और चलेगी। उनके दोनों उप-मुख्यमंत्री आजकल विरले ही कैबिनेट मीटिंगों में भाग लेते हैं। वे अमूमन दिल्ली में ही रहते हैं और आलाकमान के सम्पर्क में रहते हैं।
कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो पता चलता है कि योगी की कमान ढीली होती जा रही है। हाथरस कांड के बारे में एक उप-मुख्यमंत्री ने सीएम के बजाय केंद्र के प्रतिनिधि बीएल संतोष को रिपोर्ट दी। नौकरशाही को संकेत मिल गया है कि सरकार की जमीन कमजोर हो गई है। इसलिए उसने कामकाज लगभग ठप कर दिया है। हालांकि स्वयं सीएम पर कोई आरोप नहीं हैं, लेकिन प्रशासन में सभी स्तरों पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। हार की समीक्षा को सीएम के दरवाजे पर ठीकरा फोडऩे का उपक्रम माना जा सकता है।
खबरें आ रही हैं कि अयोध्या में रामलला के मंदिर में दर्शनार्थियों का आगमन पहले के मुकाबले बहुत घट गया है। काशी-मथुरा की तो इस समय कोई चर्चा ही नहीं कर रहा। महीने-डेढ़ महीने में विधानसभा की दस सीटों पर उपचुनाव होने हैं। आम तौर पर उपचुनाव सत्तारूढ़ दल ही जीतता है, लेकिन यूपी भाजपा में इस समय इसकी गारंटी लेने का जोखिम उठाने के लिए कोई तैयार नहीं है। कहा जा रहा है कि इन दस सीटों के चुनाव में सीएम को खुला हाथ दिया जाएगा, ताकि अगर परिणाम खराब निकलें तो सीएम को हटाने की दलील और मजबूत बनाई जा सके। यही कारण है कि आक्रामक मुद्रा में रहने वाले योगी खोए-खोए से दिखाई देने लगे हैं।
राजनीतिक गलियारों में सवाल उठ रहा है कि क्या यह लोकसभा चुनाव में हुई पराजय का परिणाम है या इसकी भूमिका पहले से बन रही थी? यह सही है कि योगी अखिल भारतीय स्तर पर मोदी के बाद भाजपा के दूसरे सबसे बड़े ‘स्टार प्रचारक’ बनकर उभरे हैं और उनके समर्थकों ने पिछले चार-पांच साल में उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। और सही बात तो यह है कि इसी दावेदारी के चलते लोकसभा चुनाव से पहले ही योगी को केंद्रीय नेतृत्व की तरफ से कमजोर करने के प्रयास शुरू कर दिए गए थे।
लोकसभा चुनावों की बात करें तो एक तो टिकट को लेकर योगी को झटका दिया गया। दूसरे, चुनावों में पूरी बागडोर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के हाथ में रही। सारा प्रबंधन उन्होंने ही किया। राजपूतों मतदाताओं में नाराजगी थी, तो उन्हें समझाने का दायित्व योगी को देने के बजाय स्वयं गृहमंत्री ने ही यह जिम्मेदारी उठाई।
आलाकमान को लग रहा था कि जब मोदी के नाम पर ही जीत हासिल होना है तो योगी को ताकतवर करने से क्या फायदा? और असलियत यह है कि यूपी की सत्ता की बागडोर पूरी दृढ़ता से कभी योगी के हाथ में नहीं रही। 2017 में सीएम बनने के बाद से योगी को अपनी पसंद के अफसर नियुक्त करने और अपने मन से टिकट बांटने की छूट शायद ही कभी मिली हो। ज्यादातर अवधि में प्रदेश के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक उनसे पूछकर कभी नहीं रखे गए। लगातार दो उप-मुख्यमंत्री सत्ता का दूसरा केंद्र बने रहे। उनकी सीधी डोर आलाकमान में बैठे ‘चाणक्य’ से जुड़ी रही। और सत्ता का तीसरा केंद्र संघ की तरफ से नियुक्त कराए गए कारकुनों के पास रहा। तबादलों और ठेका-कांट्रेक्ट वगैरह के फैसले उनके द्वारा किए जाते रहे। सत्ता का चौथा केंद्र पीएमओ में रहा। यानी यूपी में सत्ता शुरू से ही बहुकेंद्रीय रही है।
और सही बात तो यह है कि योगी इस स्थिति के प्रति कभी सहज नहीं रहे। शिकायत करने के लिए उनके पास केवल दो ठिकाने थे। या तो वे सीधे प्रधानमंत्री से अपनी व्यथा कह सकते थे या सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत से गुहार लगा सकते थे। मोदी से वे शिकायत कर चुके हैं कि पंचायत चुनावों में भी उनकी नहीं सुनी गई। और एक सच यह भी है कि सरसंघचालक की भी बात भाजपा में कम ही सुनी जा रही है।
कुल मिलाकर यूपी भाजपा में अंदरूनी कलह तेज ही होती दिख रही है और साफ तौर पर लग रहा है कि योगी के खिलाफ नेताओं को हवा दी जा रही है। सपा और कांग्रेस को इसका कितना फायदा मिलेगा, यह तो वक्त बताएगा, लेकिन फिलहाल आने वाले चुनावों को लेकर भाजपा पिछड़ती जरूर दिख रही है। और ये हालात हिंदी प्रदेशों में समीकरण भी बदल सकते हैं।
-संजय सक्सेना