Editorial: धर्मनिरपेक्षता और सुप्रीम कोर्ट

धर्मनिरपेक्षता को लेकर वर्षों से नहीं, दशकों से बहस चलती आ रही है। वर्तमान दौर में तो धर्मनिरपेक्षता को लेकर चलने वाली बहसें अक्सर बहुत ही तीखा रूप ले लेती हैं। राजनीति में तो इसका प्रयोग हो ही रहा है, समाज में भी विभाजन की एक लकीर सी खिंचती साफ दिख रही है। इसके मद्देनजर यह महत्वपूर्ण है कि पिछले दो दिनों में दो बार सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग फैसलों में इसकी अहमियत रेखांकित हुई है। एक मामले में जहां सर्वोच्च अदालत ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा करार दिया तो दूसरे मामले में इसकी संकीर्ण व्याख्या से उपजी गड़बडिय़ां भी दुरुस्त की हैं।
सोमवार को संविधान के 42वें संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया कि धर्मनिरपेक्षता के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती क्योंकि यह संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है। मामले की गंभीरता का अहसास कराते हुए जस्टिस संजीव खन्ना ने याचिकाकर्ताओं से सीधा सवाल किया कि ‘क्या आप नहीं चाहते कि भारत धर्मनिरपेक्ष रहे?’ याचिकाकर्ताओं ने भी तब कहा कि उन्हें देश की धर्मनिरपेक्षता से आपत्ति नहीं, वे सिर्फ 42वें संशोधन को चुनौती दे रहे हैं।
देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले से यह भी साफ हो गया है कि 42वें संशोधन के द्वारा प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़े जाने का मतलब यह नहीं है कि इससे पहले धर्मनिरपेक्षता संविधान का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं थी। चाहे समानता के अधिकार की बात हो या संविधान में आए बंधुत्व शब्द की, या फिर इसके पार्ट 3 यानि तीसरे हिस्से में दिए गए अधिकारों की, ये सब इस बात का साफ संकेत हैं कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान की मूल विशेषता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि चाहे धर्मनिरपेक्षता हो या समाजवाद, इन्हें पश्चिम के संदर्भ में देखने की जरूरत नहीं। सही बात तो ये है कि भारतीय परिवेश ने इन शब्दों, मूल्यों, संकल्पनाओं को काफी हद तक अपने अनुरूप ढाल लिया है।
इससे ही मिलता-जुलता दूसरा मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा यूपी बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन एक्ट 2004 को रद्द किए जाने से जुड़ा था, जिसे मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने गलत करार दिया। हाईकोर्ट ने इस एक्ट को धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ माना था। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की इस संकीर्ण व्याख्या के चलते प्रदेश के 13 हजार से ज्यादा मदरसों में पढ़ रहे 12 लाख से अधिक बच्चों के भविष्य पर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे थे। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि आवश्यकता मदरसों को प्रतिबंधित करने की नहीं बल्कि उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की है।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने 7 जून और 25 जून को राज्यों को मदरसे बंद करने से संबंधित सिफारिश की थी। केंद्र ने इसका समर्थन करते हुए राज्यों से इस पर एक्शन लेने को कहा था। कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को फैसले पर रोक लगा दी। इसके साथ ही कोर्ट ने उत्तर प्रदेश और त्रिपुरा सरकार के उस आदेश पर भी रोक लगाई, जिसमें मदरसों में पढऩे वाले स्टूडेंट्स को सरकारी स्कूल में ट्रांसफर करना था। इसमें गैर-मान्यता प्राप्त मदरसों के साथ-साथ सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों में पढऩे वाले गैर-मुस्लिम स्टूडेंट्स शामिल हैं। चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच जमीयत उलेमा-ए-हिंद की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। बेंच ने केंद्र सरकार, बाल अधिकार आयोग और सभी राज्यों को नोटिस जारी कर 4 हफ्ते के भीतर जवाब मांगा है।
कुल मिलाकर इन दोनों फैसलों पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्मनिरपेक्षता को कोसने या इसकी आड़ में राजनीति करने के बजाय समाज में इसे अपने परिवेश के अनुरूप ढालने की अधिक है। धर्मनिरपेक्षता को आधुनिक लोकतांत्रिक समाज की एक अपरिहार्य विशेषता के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। साथ ही धर्मनिरेपक्षता को लेकर उदार और व्यापक नजरिया विकसित करने की जरूरत भी है। इसे कमजोर करने की कोई भी जानी अनजानी कोशिश अंतत: देश और समाज को ही कमजोर करेगी। वर्तमान राजनीतिक परिवेश के लिए यह बहुत आदर्श संदेश है, यदि इसे सही तरह से माना जाए तो।
आज स्थितियां लगातार बिगड़ती नजर आ रही हैं। समाज में बिखराव और विभाजन की रूपरेखा बनाने से लोग बाज नहीं आ रहे हैं। विभाजन की लाइन न केवल गहरी होती दिखने लगी है, अपितु अब तो बीच में खाई बनती जा रही है। यह कह सकते हैं कि बनाई जा रहा है। यदि सत्ता में बैठे लोग ही इसका साथ देेंगे तो कैसे देश का भला हो पाएगा? आज के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय का आदेश और उसकी गाइडलाइन समाज और देश को बचाने में सफल हो सकती है। उम्मीद है, सर्वोच्च न्यायालय की भावना का सम्मान किया जाएगा।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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