Editorial: मौत की सजा…!

क्या मौत की सजा के बाद भी अपराध रुक पा रहे हैं? और, क्या न्यायिक प्रक्रिया शत प्रतिशत दोषरहित है? यानि, क्या वास्तव में दोषी को ही सजा होती है? ये सवाल हैं, जो आज बढ़ते अपराधों के दौर में तेजी से उठ रहे हैं। कानून सख्त होना चाहिए, इसमें कोई दो मत नहीं हैं, लेकिन पहली बात तो ये कि किसी निर्दोष को सजा नहीं हो, दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि कानून का खौफ अवश्य हो। 
पहली बात तो मौत की सजा यानि मृत्युदंड की। इस सजा को लेकर एक तर्क यह है कि इसे उलटा नहीं जा सकता। न्यायिक प्रक्रिया सौ प्रतिशत दोषरहित नहीं होती है और अतीत में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें राज्यसत्ता द्वारा एक निर्दोष को भूलपूर्वक मार दिया गया। फिर भी, यह देखा गया है कि किसी जघन्य अपराध के बाद या समाज में अपराधों में वृद्धि होने पर अपराधी के लिए कठोर सजा की मांग भी बढ़ जाती है। ये सच है कि सरकारों को लोगों की भावनाओं के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए। ऐसे में आंदोलनकारी जनमानस को संतुष्ट करने के लिए कठोरतम दंड की परिकल्पना की जाती है। और सख्त कानून लागू भी किए जाते हैं।
वर्तमान में जिस तरह से देश के विभिन्न हिस्सों में महिलाओं के साथ अपराधों में वृद्धि हो रही है, वो वास्तव में केवल सरकारों के लिए ही नहीं, पूरे समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय है। यही कारण है कि गंभीर यौन अपराधियों के लिए मृत्युदंड की मांग नए सिरे से तूल पकड़ चुकी है। इसी संदर्भ में, मृत्युदंड को बरकरार रखने के सवाल पर फिर से बहस शुरू होने लगी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तो मृत्युदंड को समाप्त करने की मुहिम चल रही है। 2023 तक, 112 देशों ने मृत्युदंड को समाप्त कर दिया था।
संदर्भ देखा जाए तो पिछले साल 1100 से अधिक दोषियों को फांसी दी गई। इनमें चीन के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। चीन के अलावा, पिछले साल सबसे ज्यादा फांसी की सजाएं ईरान, सऊदी अरब, सोमालिया और अमेरिका में दी गई थीं। आधुनिक राष्ट्र-राज्य तीन आधारों पर दंडित करता है। पहला है अपराधी को सुधारना। दूसरा है दंडनीय कृत्य करने की सोच रहे अन्य लोगों को डराना। तीसरा आधार प्रतिशोधात्मक है- आंख के बदले आंख का सिद्धांत। हालांकि अपराधशास्त्री, सामाजिक सिद्धांतकार और धार्मिक प्रमुख भी दंड देने के लिए प्रतिशोध के कारण को खारिज करते हैं, लेकिन जघन्य अपराध के बाद भीड़ की प्रतिक्रिया स्पष्ट रूप से प्रतिशोधात्मक न्याय के लिए ही होती है।
अपराध पर नियंत्रित करने और इन्हें रोकने के लिए सामाजिक उपकरण के रूप में मृत्युदंड का उपयोग हर समाज द्वारा किया जाता रहा है। मनुसंहिता की बात करें तो उसमें, उस शिकायतकर्ता के लिए भी मृत्युदंड प्रस्तावित है, जो गंभीर अपराध का आरोप लगाने के बाद अदालत के समक्ष गवाही नहीं देता है। यानि अपराधी का एक प्रकार से साथ देता है, भले ही विवशता में सही। 19वीं सदी के अंत से 20वीं सदी की शुरुआत तक मृत्युदंड के बारे में सोच में बदलाव आना शुरू हुआ। इतिहास गवाह है कि लियो टॉल्स्टॉय, विक्टर ह्यूगो, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला जैसे बुद्धिजीवियों ने मौत की सजा का विरोध किया। भारत में महाराजा रणजीत सिंह ने अपने शासनकाल के दौरान मृत्युदंड को समाप्त कर दिया था। त्रावणकोर और कोचीन राज्य ने औपचारिक रूप से वर्ष 1944 में इसे समाप्त कर दिया था, केवल कोचीन में इसे कुछ अपराधों के लिए बरकरार रखा गया था।
मृत्युदंड समाप्त करने के पीछे एक कारण यह भी है कि न्यायिक प्रक्रिया सौ प्रतिशत दोषरहित नहीं है और ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें राज्यसत्ता द्वारा एक निर्दोष को भूलपूर्वक मार दिया गया।  दूसरा तर्क यह है कि मृत्युदंड का प्रावधान अपने स्वभाव से ही भेदभावपूर्ण है। अधिक संपन्न लोगों की तुलना में गरीब अभियुक्तों को मृत्युदंड दिए जाने की अधिक संभावना है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में ही समान प्रकृति के अपराध के दोषी गोरों की तुलना में अश्वेतों को फांसी की सजा मिलने की अधिक संभावना होती है।
भारत में इस सजा को औपचारिक रूप से समाप्त नहीं किया गया है, लेकिन आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले कुछ वर्षों में फांसी की सजा की दर में गिरावट आई है। राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रोजेक्ट 39ए द्वारा किए एक अध्ययन के अनुसार 2023 में सत्र न्यायालय द्वारा मृत्युदंड दिए जाने वाले मामलों की संख्या 120 थी, वहीं 561 कैदियों को मृत्युदंड दिया जाना है। फिर, भी मध्यप्रदेश में रेप और हत्या के साथ ही नाबालिग से रेप के मामले में मौत की सजा का प्रावधान लागू किया गया है। हाल में कोलकाता में हुई रेप-मर्डर की घटना के बाद वहां की सरकार ने भी इसके लिए मृत्युदंड की सजा का कानून पारित कर दिया है। यह कानून अभी राष्ट्रपति के पास पहुंचाया गया है।
्रलेकिन सवाल यहां फिर वही है, क्या मध्यप्रदेश में यौन उत्पीडऩ की घटनाएं रुकना तो दूर, कम भी हुई हैं? रोजाना एकाध घटना सामने आ जाती है। अभी उज्जैन में ही एक दुष्कर्म की घटना सामने आई और उसमें दुखद पहलू यह रहा कि एक व्यक्ति उसका वीडियो बनाता रहा। घटना सडक़ पर हुई। यानि, ऐसा लगता है, मानो लोगों में कानून का भय समाप्त होता जा रहा है। मुख्य मुद्दा तो आज यही है, जो वास्तव में बहुत गंभीर चिंता का विषय है कि आखिर समाज में कानून का भय क्यों कम हो रहा है? चर्चा इस पर होना चाहिए। चिंतन और मनन इसी मुद्दे पर होना चाहिए, संभवत: कोई रास्ता निकले।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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