Desh: मनमोहन नहीं, मोदी याद किए जा रहे हैं- रवीश कुमार


मनमोहन सिंह की याद में केवल मनमोहन सिंह ही याद नहीं आ रहे हैं। जितना ज़्यादा उन्हें याद किया जा रहा है, उतना ज़्यादा किसी और का ध्यान आ रहा है। उनके लिए लिखी जा रही तारीफ़ की पंक्तियों में बहुत सारी ख़ाली जगह नज़र आती हैं। इन स्थानों को मनमोहन सिंह ने ख़ाली नहीं किया है, उनके बाद प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने किया है।भले उनका नाम नहीं लिया रहा है लेकिन मनमोहन सिंह के साथ उनका भी ध्यान आ जाता है। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद नरेंद्र मोदी उतना साफ़ साफ़ नहीं दिखे थे, जितना अब दिखने लगे हैं।

लोगों का लिखा पढ़ रहा था। वे 3 जनवरी 2014 की प्रेस कांफ्रेंस को याद कर रहे थे जब सौ से अधिक पत्रकारों ने 62 सवालों के साथ उन पर धावा बोल दिया था। इस प्रेस कांफ्रेंस का वीडियो भारत के प्रधानमंत्रियों के लोकतांत्रिक होने का ऐसा दस्तावेज़ है जो केवल मनमोहन सिंह के नाम दर्ज है। नहीं के बराबर बोलने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कई बार पत्रकारों का सामना किया, संपादकों से मुलाकात की और खुली प्रेस का सामना किया। जितनी बार आप इस बात के लिए मनमोहन सिंह को याद करते है, प्रकारांतर से आप प्रधानमंत्री मोदी को याद करने लग जाते हैं। दस साल से वे ऐसी प्रेस कांफ्रेंस करने का साहस नहीं दिखा सके बल्कि उनके दौर में वही प्रेस जो मनमोहन सिंह के समय में आक्रामक था, भीगी बिल्ली बन गया। उसकी आवाज़ दबा दी गई। उसकी कमर तोड़ दी गई। मीडिया को हिन्दू राष्ट्र के नाम पर नफ़रती अभियान में लगा दिया गया। सवाल करने वाला मीडिया ख़ुद में सवाल बन गया।

अब अगर प्रधानमंत्री मोदी चाहें तो ऐसी प्रेस कांफ्रेंस करने का साहस दिखा सकते हैं क्योंकि अब पत्रकार नहीं बचे हैं। वे सौ क्या एक हज़ार पत्रकारों को जुटा लेंगे तब भी कोई उस तरह से खुल कर सवाल नहीं पूछ सकता है जिस तरह से मनमोहन सिंह के सामने पूछ सकता था। लेकिन इंस्टाग्राम के रील के लिए ऐसी प्रेस कांफ्रेंस का वीडियो तो मोदी बनवा ही सकते हैं। ये और बात है कि उन्हें इसकी ज़रूरत नहीं है। जिस तरह से उनके नेतृत्व काल के दौरान के चुनाव संदिग्ध होते जा रहे है, अगर यह सच है तो उन्हें अब प्रेस कांफ्रेंस की चिंता भी नहीं करनी चाहिए लेकिन क्या यह सच नहीं कि मनमोहन सिंह की प्रेस कांफ्रेंस की बात में प्रधानमंत्री मोदी की बात ज़्यादा हो रही है।

भारत की आम जनता को सूचना का अधिकार देने वाले मनमोहन सिंह का यह योगदान हमेशा प्रधानमंत्री मोदी का पीछा करेगा। क्या प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में संभव था कि इस तरह का कानून बन जाता। उनके राज में सूचना के अधिकार की क्या दुर्गति हुई। इस अधिकार को कुचल कर इलेक्टोरल बान्ड लाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने सूचना के अधिकार के आधार पर ही मोदी सरकार के बड़े सुधारों में से एक इलेक्टोरल बान्ड को असंवैधानिक घोषित कर दिया। इलेक्टोरल बॉन्ड जनता की आंखों पर पट्टी बांध कर चंदा लूटने का सबसे बड़ा अभियान था। धन संसाधन से लैस एक पार्टी भारत की राजनीति में लड़ने वाली एक ही पार्टी बन कर रह गई। बाकी पार्टियां संसाधन को लेकर संघर्ष में आ गई और उनका मानव संसाधन जांच एजेंसियों के भय से बीजेपी में पलायन करने लगा।

मनमोहन सिंह की देन है सूचना का अधिकार। जिससे लैस होकर चारों तरफ घोटाले पकड़े जाने लगे और जनता खुद को ताकतवर महसूस करने लगी। क्या मोदी ऐसी ताकत अपनी जनता को दे सकते हैं? जब जनता ने चुनाव आयोग से दस्तावेज़ मांगने शुरू किए तब मोदी सरकार ने चुनाव आयोग से जुड़ा नियम ही बदल दिया कि हर तरह के दस्तावेज़ आप नहीं माँग सकते हैं। मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी विरासत है कि दस साल सत्ता में रहने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठे। सत्ता का हस्तांतरण कितनी आसानी से हो गया। लेकिन आज हर चुनाव संदेह के दायरे में हैं। सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट के फैसले और जजों को लेकर सवाल उठ रहे हैं।

कितने ही लोगों ने असहमति और विरोध को जगह देने के लिए मनमोहन सिंह को याद किया है। इस बात के लिए किसी प्रधानमंत्री को क्यों याद किया जा रहा है? क्या इसलिए कि उनके बाद के एक दशक असहमति और विरोध को कुचल देने वाले साबित हुए? क्या भारत को लोकतंत्र की जननि के स्लोगन में ढालने वाले प्रधानमंत्री मोदी को इस बात के लिए याद किया जाए कि उनके राज में असहमति और विरोध को जगह मिली? मिली लेकिन उसके बाद जेल भी मिली और ज़मानत तक नहीं मिली। भारत जैसे लोकतंत्र में एक प्रधानमंत्री की इसलिए तारीफ़ नहीं होनी चाहिए कि उन्होंने असहमति और विरोध को सहा और सम्मान दिया। बस इतनी सी नाराज़गी ज़ाहिर कि इतिहास मेरे प्रति दयालु होगा। लेकिन उन्होंने अपनी आलोचना से क्रोधित होकर इतिहास को नहीं कुचला। झूठे बयानों से इतिहास के पन्नों को नहीं भर दिया। मनमोहन सिंह अपना इतिहास अपने साथ ले कर जा चुके हैं और छोड़ गए हैं प्रधानमंत्री मोदी का इतिहास। यह इतिहास क्या है? प्रधानमंत्री मोदी का यही तो इतिहास है कि उनके बयान के बाद तथ्यों की जाँच करनी पड़ती है और नफ़रती बातों से कहीं हिंसा न हो जाए, इसकी चिंता करनी पड़ती है। आप जितनी बार मनमोहन सिंह की वाणी की बात कर रहे हैं, नाम न लेकर भी आप प्रधानमंत्री मोदी की ही बात कर रहे हैं।

मनमोहन सिंह के समय राजधानी दिल्ली की जनता रायसीना हिल्स तक पहुँच गई थी। इंडिया गेट के चारों तरफ जनता फैल गई थी और निर्भया मामले में नारे लगा रही थी। प्रधानमंत्री मोदी के समय जब नागरिकता कानून का विरोध हुआ तो उन पर पिस्तौल चलाने वाले आ गए। ऐसा कभी नहीं हुआ कि पुलिस की मौजूदगी में कोई बंदूक तान दे। मनमोहन सिंह को जनता इसलिए याद करेगी कि उसने आखिरी बार महसूस किया था कि वह जनता है। वह बोल सकती है। संगठित हो सकती है और फिर भी सकुशल घर लौट सकती है। पचीस तीस साल की लड़कियों और लड़कों को UAPA के तहत बंद नहीं किया जा सकता है। शिवराज सिंह चौहान ने लिखा है कि पाला को राष्ट्रीय आपदा घोषित करना था, इसकी बात उन्होंने मनमोहन सिंह के सामने रखी। प्रधानमंत्री ने जो कमेटी बनाई उसमें शिवराज सिंह चौहान को भी रखा। क्या ऐसा कोई प्रसंग आपको प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में याद आता है? इसलिए जब आप मनमोहन सिंह को याद करते हैं तो न चाहते हुए भी प्रधानमंंत्री मोदी दिखाई देने लग जाते हैं।

प्रधानमंत्री के पद पर दस साल रहने के बाद भी मनमोहन सिंह ने अपनी कमियों पर पर्दा डालने के लिए कभी धर्म का सहारा नहीं लिया। कभी भी धर्म को लेकर ऐसा बयान नहीं दिया जिससे दो धर्मों के बीच नफ़रत फैल जाए। जनता का ध्यान हटाने के लिए वे कभी अपने आप को धार्मिक आयोजनो में नहीं ले गए। चुनाव के हिसाब से मंदिरों का दर्शन नहीं किया और न महापुरुषों को याद किया। जब आप मनमोहन सिंह के इन गुणों को याद करते हैं तो प्रधानमंत्री मोदी अपने आप प्रसंग में शामिल हो जाते हैं। दिख जाता है कि ज़रूरत नहीं होती है तब भी वे धर्म की आड़ में खुद को बचाते रहते हैं। क्या आपने मनमोहन सिंह का कोई भी ऐसा बयान कल से लेकर आज तक वायरल देखा है जिसमें झूठ हो, नफ़रत हो और अहंकार हो? अगर आप शालीनता और शराफ़त के लिए मनमोहन सिंह को याद कर रहे हैं तो इसके दूसरे छोर पर कौन नज़र आता है?

मनमोहन सिंह को याद में साझा की जा रही तस्वीरों में कितनी सादगी है। उनके पीछे की सजावट में भारत की जनता का पैसा नहीं फूंका गया है। उनकी हर तस्वीर सादगी की एक मिसाल है। भव्यता जैसे सादगी का दूसरा नाम हो। मनमोहन सिंह लोकप्रिय नेता नहीं थे लेकिन लोकप्रिय होने के लिए उन्होंने अतिरिक्त प्रयास भी नहीं किया। दस साल तक प्रधानमंत्री रहे,लेकिन फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी कराने किसी ख़ूबसूरत लोकेशन पर नहीं गए। उनकी नीरस तस्वीरों को देखते हुए आप किसे याद करते हैं? किन तस्वीरों को याद करते हैं? वही जो कुंभ में नज़र आते हैं,केदार नाथ के गुफा में नज़र आते हैं, राम मंदिर के शिलान्यास में नज़र आते हैं। कन्याकुमारी में 45 घंटों का ध्यान करते हुए नज़र आते हैं। हमेशा अकेले होते हैं लेकिन कैमरों के बीच अकेले दिखाई देते हैं।

प्रधानमंत्री मोदी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दोनों अलग-अलग कक्षाओं के प्रोफेसर हैं। मनमोहन सिंह की डिग्री को लेकर कोई सवाल नहीं कर सका। प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री को लेकर सवाल ही होता रहा। मनमोहन सिंह के लिए भारत एक विश्वद्यालय था, जिसके क्लास रूम में पढ़ाने आया प्रोफेसर धीरे धीरे बोल रहा होता था।  बिना छुट्टी के घंटों काम करने वाले मनमोहन सिंह ने कभी इन बातों का प्रचार नहीं किया। जिस स्तर के अर्थशास्त्री थे वहां तक पहुंचने के लिए किसी को भी घंटों काम करना ही होता है। उनके लिए कई घंटे काम करना अलग से बताने वाली चीज़ नहीं थी। मगर ज़रूरी नहीं कि प्रोफेसर सीरीयस है तो उसके छात्र भी उतने ही सीरीयस होंगे। जिस वक्त वे क्लास ले रहे होते थे, उस वक्त उनके छात्रों का ध्यान खिड़की से बाहर होता था। उन्हें एक ऐसा नेता चाहिए था जो रोज़ आने वाले प्रोफेसर से अलग हो। जिसमें थोड़ी तड़क भड़क हो। तुम तड़ाक हो। जो क्लास में तो आए लेकिन पढ़ाने की जगह हंसाता फिरे। भटकाता फिरे और पास होेने के लिए कुंजी पकड़ा कर निकल जाए।

मनमोहन सिंह को बहुत अफ़सोस के साथ याद किया जा रहा है। इस अफ़सोस की भी एक ख़ास बात है। यह अफ़सोस जितना मनमोहन सिंह को लेकर नहीं है, उससे कहीं ज़्यादा प्रधानमंत्री मोदी को लेकर है। जिन गुणों के लिए मनमोहन सिंह याद किए जा रहे हैं, उन्हें क्यों अलग से नोट किया जाता अगर प्रधानमंत्री मोदी में भी वही गुण होते। इतिहास मनमोहन सिंह के प्रति दयालु नहीं हो रहा है। वह बस अपने साथ उन्हें ले गया है। मनमोहन सिंह के इतिहास ने भारत के वर्तमान से पर्दा एक और बार हटा दिया है। भारत के छात्र क्लास रूम से बाहर देख रहे हैं। मनमोहन सिंह को नहीं, नरेंद्र मोदी को देख रहे हैं।

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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