BHOPAL आठ देशों के संपर्क में,  तलाशा जा रहा, द्वितीय विश्व युद्ध में बंदियों को कैसे रखा गया

अलीम बजमी.
27 अगस्त 2024 भोपाल।
राजधानी के बैरागढ़ (अब संत हिरदाराम नगर) की बैरकों और गिन्नौरगढ़ के घने जंगल में द्वितीय विश्व युद्ध के 30 हजार बंदियों को रखे जाने को लेकर अब शोध चल रहा है। इसके लिए अमेरिका और ब्रिटिश हुकूमत समेत छह अन्य देश से भी सहायता मांगी गई है। ये देश भी इस विषय पर अधिकाधिक जानने को लालयित है। इसको लेकर पत्र व्यवहार भी शुरू हो गया है।  द्वितीय विश्व युद्ध के बंदियों का इतिहास तलाशा जा रहा है। ये जिम्मा इंटैक (इंडियन नेशनल ट्रस्ट आर्ट एंड कल्चरल हैरिटेज) ने उठाया हुआ है। यह उसके अध्ययन एवं शोध के विषय में शामिल है, कि बंदियों के साथ कैसा सुलूक हुआ, परिश्रम कराने के बदले कितना मेहनताना दिया जाता था। मेहनताना का कूपन किस रंग और किस भाषा के साथ कैसी मुहर लगा होता था, इनकी क्या-क्या गतिविधि रही….? 
गौरतलब है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बंदियों को भारत में 29 शिविरों में रखा गया था। इनमें से भोपाल रियासत में दो शिविर बनाए गए थे। ये भी जान लीजिये कि भोपाल रियासत का चयन यहां रेलवे के कारण हुआ था। बैरागढ़ एवं गिन्नौर गढ़ क्षेत्र (सीहोर जिला) में सघन वन और बसाहट से दूर होने के कारण प्राथमिकता दी गई थीं।
द्वितीय विश्वयुद्ध  वर्ष 1939-1945 में हुआ था। इस दौरान ब्रिटिश हुकूमत ने करीब 2.75 लाख युद्ध बंदियों को पकड़कर भारत भेजा गया था। इनमें से करीब 30 हजार बंदियों को भोपाल रियासत को सौंपा गया था। इतनी बड़ी तादाद में आए युद्ध बंदियों को तत्कालीन नवाब हमीदुल्ला खां ने भोपाल के नजदीक बैरागढ़ के अलग-अलग हिस्सों और सीहोर जिले के देहलाबाड़ी के जंगल में बनाई गई विशेष बैरकों में रखा था। देहलाबाड़ी के जंगल में एक बैरक एक किलो मीटर लंबी और करीब पौन किलो मीटर चौड़ी थीं। अब तो इसके अवशेष ही शेष बचे है। यद्यपि जहां युद्ध बंदियों को रखा गया था, वहां सघन जंगल होने के साथ बड़ी संख्या में वन्यप्राणी थे। बैरकों के पीछे गहरी खाई थीं। यहां तक का पहुंच मार्ग काफी दुर्गम था। ये स्थिति अभी भी है।
इधर, शहर के बैरागढ़ (संत हिरदाराम नगर) में जहां युद्ध बंदियों को  रखा गया था, उस हिस्से का एक भाग कैंट विस्तार होने से सेना के पास चला गया। एक बड़े हिस्से में बसाहट हो चुकी है। यहां गिदवानी पार्क के आसपास के इलाके में मकानों के नंबर आज भी बैरक नंबर से पहचाने जाते हैं। यही कारण है कि न्यू बी वार्ड के सभी मकानों की रजिस्ट्री में बैरक नंबर दर्ज है। नगर निगम के रिकॉर्ड में भी मकान नंबर के साथ बैरक नंबर दर्ज हैं। एच वार्ड के मकान भी बैरक नंबर के क्रम से ही पहचाने जाते हैं। यहां के निवासी अपना पता लिखते समय एच- नंबर… बैरक नंबर … बैरागढ़ भोपाल मप्र लिखना नहीं भूलते।
युद्ध बंदियों को आवंटित बैरकों के कुछ अवशेष सीआरपी कॉलोनी के पास पुलिस क्वाटर्स के रूप में देखे जा सकते हैं। इनमें कुछ पुलिस कर्मी रहते हैं। बैरागढ़ में दूसरे विश्वयुद्ध के करीब 20 हजार इटालियन कैदी रहते थे। इन बंदियों को ब्रिटेन की सेना ने दिसंबर 1940 में इजिप्ट में बंदी बनाया था। यहां की बैरकों में कुछ सैनिक अच्छे कलाकार भी थे।  दीवारों पर बनी पेंटिंग युद्ध बंदियों की कला का प्रमाण देती रहीं। अफसोस ये सुरक्षित नहीं रह सकी। यहां से कुछ दूरी पर स्थित हलालपुर में ईसाई कब्रिस्तान विश्व युद्ध का एक गवाह है। 1941 से 1944 के बीच बैरागढ़ की बैरकों में कैद 139 सैनिकों की मौत होने पर उन्हें यहां दफनाया गया था। बैरकों के कारण ही इसका नाम बैरागढ़ पड़ने की भी एक कहानी है। उधर, देहलाबाड़ी इलाका वन क्षेत्र घोषित है। यहां बड़ी संख्या में वन्य प्राणी है। इनमें अधिकांश मांसाहारी वन्य प्राणी है। इस कारण इसके संरक्षण का काम इंटैक व्यवहारिक कारणों से नहीं कर पा रहा है।
दूसरी ओर, इंटैक के भोपाल सर्किल के अध्यक्ष एवं सेवानिवृत आइएएस एमएम उपाध्याय ने बताया कि बैरागढ़ एवं देलाबाड़ी में रखे गए युद्ध बंदियों के संबंध में प्रारंभिक अध्ययन में पता लगा कि अधिकतर युद्धबंदी इटली के थे। इसको लेकर इटली, अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया समेत आठ देशों के अलावा कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद में संबंधितों से संपर्क बनाए हुए हैं ताकि उस समय के फोटोग्राफ, दस्तावेज, खाने एवं मेहनताना कूपन, डायरी में बने स्कैच, बंदियों की दिनचर्या, अन्य संबंधित  जानकारियां आदि मिल सके। ये काम काफी दुष्कर है। लेकिन प्रयास जारी है। कुछ समय पहले एक अमेरिकी महिला भी अपने पूर्वजों को तलाशती हुई आई थीं। वो पहले देहलाबाड़ी गई फिर हमसे मिली थीं। लेकिन हम उसकी मदद नहीं कर सके। अमेरिका के अलावा यूरोपीय देशों की लायब्रेरियों से भी दस्तावेजी मदद मांगी है। साथ ही पूर्व फौजियों और उनके परिजनों से भी संपर्क बनाए हुए है ताकि हमें अधिकतम जानकारियां मिल सके।
इटली एम्बेसी भोपाल में दफन बंदियों
की कब्रों से शवों के अवशेष ले गई
श्री उपाध्याय बताते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद वर्ष 1952 में इटली ने देश में जहां-जहां इटालियन सैनिक दफन थे, उनको एक स्थान पर दफनाने के लिए भारत सरकार से मुंबई में जगह मांगी। जमीन मिलने पर उसने इटालियन क्रिश्चियन  ग्रेवयार्ड बनाया। इसके बाद भोपाल समेत अन्य शहरों में दफन इटालियन सैनिकों की कब्रों से उनके शव निकालकर इटालियन क्रिश्चियन ग्रेवयार्ड में दफनाया गया।  

फेसबुक वाल से साभार

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