BHOPAL: स्मार्ट सिटी की अवधारणा स्पष्ट
नहीं तो काहे की स्मार्ट सिटी….?


अलीम बजमी.
भोपाल। अपने भोपाल में स्मार्ट सिटी को लेकर नागरिक बहुत उत्साहित थे। वजह भी साफ थी, कि शहर का चेहरा बदलेगा। नगरीय सुविधाओं में इजाफा होगा। व्यवस्थाएं सुधरेगी यानी  तमाम सेवाएं स्मार्ट होगी। विकास दर बढ़ेगी। मानव श्रम में इजाफा होगा। रियल एस्टेट तक आम आदमी की पहुंच बढ़ेगी। पर्यावरणीय सुधार होंगे। ट्रैफिक व्यवस्थित और नियोजित रूप में संचालित होता दिखाई देगा। नागरिकों ने समझा था कि  स्मार्ट सिटी नागरिकों को बेहतर जीवन स्तर प्रदान करेगी।नगरीय विकास के ‘स्मार्ट’ समाधान लागू होंगे। शहर का समावेशी विकास होगा। आदर्श प्रकृति मॉडल सृजित होगा। जो अन्य शहरों के लिए प्रकाश स्तंभ के रूप में काम करेगा। लेकिन हुआ सब कुछ उल्टा।
देखा जाए तो स्मार्ट सिटी के नाम पर सरकार और भोपाल नगर निगम का कोई स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं है। देर से समझ में आया कि इसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा भी सरकार  स्तर पर तय नहीं हुई। नतीजे में पहले से स्मार्ट इलाके को स्मार्ट सिटी के नाम पर लील लिया गया। यानी नार्थ और साउथ टीटी नगर स्मार्ट सिटी की भेंट चढ़ गए। यानी करीब 375 एकड़ भूमि स्मार्ट सिटी का निवाला बन गई। यहां पर बने सरकारी और गैर सरकारी मकानों को जमींदोज कर दिया गया। यहां रहने वालों का जो हाल हुआ, वो किसे छिपा नहीं है।
वहीं, आठ-नौ साल पहले जो वादे, दावे, सपने दिखाकर स्मार्ट सिटी की खातिर नार्थ और साउथ टीटी नगर स्थित मकानों से जिस प्रकार से सरकारी कर्मचारियों को निकाला गया, वह दुखद है। शर्मनाक है। साथ ही उन मकानों को भी निशाना बनाया गया, जिनमें रहने वाली शख्सियतों के कारण देश-दुनिया में साहित्य, रंग-कला के क्षेत्र में भोपाल को देश-दुनिया में पहचान मिली थीं।
अफसोस तो ये है कि स्मार्ट सिटी की अवधारणा और मौजूदा विकास के स्तर में काफी अंतर दिखाई देता हैं। शहर के निवासियों की आंकाक्षाओं, अपेक्षाओं के विपरीत पूरा प्रोजेक्ट है। नए शहर के प्राइम इलाके की जमीन को खाली कराने के बाद अब निवेशकों को तलाशा जा रहा है। वहीं, प्रोजेक्ट को पहचान दिलाने यहां जिस प्रकार के पौधे लगाए गए, सड़कों का निर्माण हुआ, स्ट्रीट लाइटों के पोल लगे आदि में अनियमितता की गंध आती है। कई लोग ये आरोप खुलकर लगाते है। वजह भी साफ है, गुणवत्ता और पारदर्शिता नहीं होना।
अहम बात ये हैं कि नागरिकों ने समझा था कि स्मार्ट सिटी नागरिकों को बेहतर जीवन स्तर प्रदान करेगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।  हकीकत यह है कि स्मार्ट सिटी का एक भी प्रोजेक्ट ऐसा नहीं है जिससे लोगों को जिंदगी स्मार्ट हुई हो या शहर में इंकलाबी बदलाव आ गया हो।
मेरे विचार से इस अहम मुद्दे अभी विषय विशेषज्ञों के साथ सरकार को चिंतन-मनन करना चाहिए ताकि जनधन की बर्बादी न हो। वर्ना 1200 करोड़ रुपए खर्च होने के बाद भी यही कहा जाएगा कि 85 वार्डों के शहर में महज दो वार्डों की सरकार ने सुध ली है। दो वार्ड आकार की जमीन में विकास के नाम पर सीमेंट क्रांकीट की सड़कें, आकर्षक बिजली खंभे, फव्वारे, अप्राकृतिक हरीतिमा विकसित कर दी। बाद में इसे स्मार्ट सिटी के रूप में प्रचारित किया गया तो तैयार रहिए। वैसे आलोचना तो लगातार हो रही है। आलोचकों के अकाट्य तर्कों के आगे तमाम एजेंसियां बौनी दिखाई देती है।
अंत में दुष्यंत कुमार की एक गजल
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
साभार

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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