हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में जिस तरह से विपक्षी पार्टियों को झटका लगा, उसके बाद एक बार फिर से विपक्षी गठबंधन के अंदर से आवाजें उठना शुरू हो गई हैं। महाराष्ट्र चुनाव के नतीजों के बाद तो ऐसा कहा जा रहा है कि बहुत जल्द नेतृत्व को लेकर कोई फैसला नहीं किया गया तो इंडिया गठबंधन बिखर सकता है। लगातार चुनावी नाकामियों से पैदा हुई बेचैनी गठजोड़ पर भारी पड़ रही है। एक-दूसरे के खिलाफ असंतोष और बयानबाजी जिस तरह से होना शुरू हो गई है, वह विपक्ष के लिए कतई शुभ संकेत नहीं कहे जा सकते।
महाराष्ट्र में वैसे तो चुनाव के पहले से ही इंडिया गठबंधन में विरोध के स्वर उठने लगे थे। जैसेे तैसे सीटों का बंटवारा हो गया। इसके बाद सरकार बनने की उम्मीद पर ही मुख्यमंत्री बनने के लिए नेताओं के तेवर बदलने लगे थे। लेकिन नतीजों के बाद जैसे भड़ास निकालने का दौर शुरू हो गया है। सपा ने शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट से नाराजगी की बात कहते हुए महाविकास अघाड़ी गुट से नाता तोड़ कर इसकी शुरुआत कर दी है। उद्धव के बेटे आदित्य ठाकरे ने जवाब देते हुए सपा के कुछ नेताओं को भाजपा की बी टीम कह डाला।
यह मामला भले राज्य की सियासत पर असर न डाले, लेकिन इसके गहरे मायने हैं और यह आगे भी बढ़ सकता है। इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का इंडिया को लीड करने की इच्छा जाहिर करना भी बहुत कुछ संकेत देता है। इन दोनों की नाराजगी गठबंधन के नेतृत्व को लेकर तो है ही, इस तरह से सीधे कांग्रेस पर निशाना साधा जा रहा है। ममता बनर्जी तो समय-समय पर अपने तेवर दिखा ही देती हैं। बंगाल चुनाव में भी उन्होंने सहमति के बजाय अपने हिसाब से ही चुनाव लड़ा। उन्हें सफलता मिली यह अलग बात है, लेकिन वह गठबंधन के साथ रहकर भी अलग ही चलने में विश्वास करती हैं।
देखा जाए तो विपक्ष में सबसे ज्यादा आम सहमति की कमी दिखाई देती है। सीटों से लेकर मुद्दों तक, मित्र दलों के बीच कहीं भी एकजुटता नहीं दिखती। हरियाणा चुनाव में एक झलक दिखाई दी थी। फिर, महाराष्ट्र में भी बहुत एकजुटता का प्रदर्शन नहीं हो पाया। अब हाल यह है कि संसद के वर्तमान शीतकालीन सत्र में तो बिखराव साफ दिखने लगा, जब अदाणी मामले पर कांग्रेस और टीएमसी ने अलग राह पकड़ ली। दरअसल, यह टकराव राष्ट्रीय राजनीति में फिर से मजबूत होने की कोशिश कर रही कांग्रेस और अपने वजूद के लिए लड़ रहीं क्षेत्रीय सियासत की धुरंधर पार्टियों के बीच का अधिक होता दिख रहा है।
देखा जाए तो समय-समय पर इस तरह की खबरें आती रही हैं, जो विपक्षी एकता के लिए चुनौती खड़ी कर देती हैं। कुछ अरसा पहले ही यूपी में उपचुनाव को लेकर कांग्रेस और सपा के बीच जैसी असहज स्थिति बनी थी, वैसा सहयोगियों के बीच तो नहीं होता। महाराष्ट्र चुनाव के दौरान भी सहयोगी दलों में तालमेल की कमी होने की बात सामने आई थी। बंगाल में पहले ही कांग्रेस और टीएमसी एक-दूसरे के विरुद्ध चुनाव ही लड़ चुकी हैं। इसी तरह, दिल्ली में भी चुनाव मैदान में आप और कांग्रेस अलग-अलग ताल ठोक रहे हैं।
ऐसा राष्ट्रीय गठजोड़ समझ से बाहर है, जिसमें इतने अंतर्विरोध हों। यहां पार्टियां आम चुनाव में साथ हैं, लेकिन राज्यों के चुनाव में आमने-सामने आ जाती हैं। ऐसे में इन दलों के समर्थकों की उलझन की सहज की कल्पना की जा सकती है। असल में गठबंधन चलता है समझौतों से, जब सारे पक्ष थोड़ा-थोड़ा त्याग करें। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि कौन त्याग करेगा? अभी तक तो यही हुआ कि जहां जो दल मजबूत था, वहां उसने दूसरे सहयोगी दलों को अपने बात मनवाने की कोशिश की। सपा ने यूपी में अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिश की तो हरियाणा में कांग्रेस के तेवर सख्त दिखे। बंगाल में तो टीएमसी किसी को हाथ रखने की मोहलत नहीं देती।
यह विपक्ष के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय बन गया है कि आम चुनाव के बाद वह जितना एकजुट और मजबूत नजर आ रहा था, अब उतना ही बिखरा दिखाई दे रहा है। जम्मू-कश्मीर और झारखंड की जीत इतनी बड़ी नहीं है, जो बाकी राज्यों की हार के दर्द को कम कर सके। इन दोनों राज्यों में भी अलायंस की जीत में क्षेत्रीय दलों की बड़ी भूमिका रही है। इसलिए अब विपक्षी अलायंस के नेतृत्व को लेकर भी उसे चुनौतियां मिल रही हैं। भारतीय जनता पार्टी इसका भरपूर लाभ उठा रही है। उठाए भी क्यों न, यह राजनीति भी तो जंग की तरह ही खेली जाती है।
फिलहाल देखा जाए तो आने वाले चुनाव विपक्षी अलायंस के भविष्य के लिए भी महत्वपूर्ण होंगे। विपक्ष की मजबूती केवल उसके घटक दलों के लिए ही नहीं, एक मजबूत लोकतंत्र के लिए भी जरूरी है। इसलिए यदि इंडिया गठबंधन को चलाना है तो एकता के प्रयास एक बार फिर करने होंगे। नहीं तो गठबंधन बहुत जल्द बिखरना तय है।
– संजय सक्सेना