अलीम बजमी.
भोपाल ,
उर्दू यानी शीरी (मीठीं) जुबान। नाजुक। नफासत (कोमलता, स्वच्छता) से घिरी। इसका बांकपन अलबेला है। जुबान में तहजीब है। दिलों में उतरने का फ़न इसका हुनर। इसमें मोहब्बत की महक हैं। इसका हुस्न दिलरुबा की मानिंद है। इसकी गुफ्तगूं में लफ्जों (शब्दों) का सलीका है। एतमाद (विश्वास) है। अपनापन भी। लेकिन अफसोस। गुरबत (निर्धनता) ने इसे सरसब्ज़ (हराभरा) नहीं होने दिया। हुकूमतों ने इसकी परवरिश करने में सौतेलारूख दिखाया। कुछ मायनों में यह बदसलूकी का भी शिकार है। कभी इस पाले में तो कभी उस पाले में भटकने के बाद मौजूदा हालात में यह हाशिए पर खड़ी है। हिचकियां ले रही है।
हालांकि उर्दू हिंदुस्तान के आंगन में ही पलकर बड़ी हुई है। यह किसी मजहब की नहीं बल्कि हिंदुस्तान की जुबान है। गंगा-जमुनी तहजीब का एक हिस्सा है। ये हिंदुस्तानियों को एक धागे में बांधने का काम करती है। इस जुबान में नजाकत है तो लोच भी। ये मुमताज(विशिष्ट) है तो बेनज़ीर (अतुलनीय) भी। ये दिलों को जोड़ती हैं। वैसे भी जुबान की कोई हद या मजहब नहीं होता। लेकिन कतरे-कतरे में सिमटती इस जुबां को रहबरी (मार्गदर्शन) चाहिए। ये भी सच है कि इसकी कई मौकों पर धुलाई, मंजाई, घिसाई हुई लेकिन बढ़ती उम्र के साथ उर्दू निखरी है। इसके हुस्न और निखार, लोच में कमी नहीं आई ।
मशहूर शायर डॉ. बशीर बद्र का एक शेर है…
वो इत्रदान सा लहजा मिरे बुज़ुर्गों का
रची-बसी हुई उर्दू ज़बान की ख़ुश्बू
ये भी सच है कि उर्दू की परवरिश में अमीर खुसरो, अमीर मिनाई, मीर तक मीर, आबरू शाह मुबारक, मिर्जा गालिब, बाल मुकुंद बेसब्र, पंडित दया शंकर नसीम लखनवी,अल्लामा इकबाल, मिर्जा हादी रुस्वा, मुंशी प्रेमचंद से लेकर इब्ने सफी, मजाज़, शौकत थानवी, रघुपति सहाय (फिराक गोरखपुरी), फैजाबाद के पंडित ब्रिज नारायण (चकबस्त), आनंद मोहन जुत्शी (गुलजार देहलवी), राजेंद्र सिंह बेदी, अमृता प्रीतम, इस्माइल मेरठी, नादिर काकोरवी, कतील शिफाई, आगा हश्र कश्मीरी, मुंशी नवल किशोर, पंडित रतननाथ (सरशार), कन्हैयालाल कपूर और फिक्र तौंसवी (रामलाल भाटिया), कुंवर महेंद्र सिंह बेदी सहर, कृष्ण बिहारी नूर, संपूर्ण सिंह कालरा यानी गुलजार जैसी अदब की दुनिया की कई बड़ी शख्सियतें शामिल है। इन शख्सियतों ने उर्दू को परवान चढ़ाने और अपनी बात कहने का जरिया बनाया।
9 नवंबर आलमी-यौमे-ए-उर्दू यानी विश्व उर्दू दिवस है। यह उर्दू के मकबूल शायर अल्लामा डॉक्टर इकबाल की यौमे पैदाइश की तारीख भी है। इस तारीख को भोपाल समेत मुल्कभर में उर्दू जुबान को लेकर जलसे, मुशायरे, सेमिनार,कॉन्फ्रेंस वगैरह होती है। लेकिन भोपाल समेत पूरे सूबे में असेम्बली इलेक्शन के चलते सरकारी तौर पर यह नहीं होंगे। अवामी तंजीमें छोटे पैमाने पर ही सही कुछ प्रोग्राम जरुर करेंगी। इन सभी में उर्दू की तरक्की की बातें होगी। बाद में ये जिक्र किस्से-कहानी की तरह कहीं दफन हो जाएगा।
अगर फ्लैश बैक में जाए तो उर्दू की मकबूलियत सुनने, पढ़ने को मिलती है। आजादी की लड़ाई में ‘‘इन्क़लाब जि़न्दाबाद’’, ‘‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिलों में है’’, ‘‘सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा’’ आदि नारों, तकरीरों का औजार बनी तो फ्रीडम मूवमेंट में इसकी अहमियत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आज़ादी की जंग में उर्दू ने भी अपना किरदार अदा किया। उर्दू ज़बान ने नारे और शेर दिए जिसे पढ़कर और सुनकर हिंदुस्तानियों में आज़ादी का जोश भर दिया।
उर्दू नारों से फिरंगी हुकूमत के खिलाफ जोश और जुनून का जज्बा बढ़ाया। इसके चलते शायरी लगातार परवान चढ़ी। दरअसल उर्दू किसी कौम की नहीं हिंदोस्तान की जुबान में है। लेकिन बदकिस्मती से इसकी हुकूमतों ने नजरअंदाज करना जब से शुरु किया, इसका रसूख कम होने लगा। इसकी मिसाल सरकारी स्कूल है। इनकी कभी खोजखबर नहीं ली गई। धीरे-धीरे उर्दू टीचरों का टोटा हो गया। नए उर्दू टीचरों की भर्ती मध्य प्रदेश में सालों से नहीं हुई। सरकारी कॉलेजों में उर्दू डिपार्टमेंट बंद होने की कगार पर है। प्राइवेट कॉलेजों का जिक्र करना तो बेफिजूल होगा।
वहीं उर्दू की तरक्की के नाम से खुली एकेडमी के हाल भी किसी से छुपे नहीं है। उन्हें सरकारी मदद तो ऊंट के मुंह में जीरे के मुताबिक मिलने से 75 फीसद रकम स्टॉफ की तनख्वाह, दीगर दफ्तरी खर्चों में खर्च हो जाती है। सच मानिए इस जुबान की ख़ूबसूरती का आलम यह है कि दो लफ़्ज़ ग़र किसी अंधेरे कमरे में गूंज जाएं तो फ़ानूस की शमां सी रोशनी हो जाए।
उर्दू के कई शेर अलग-अलग मौकों पर जुलूस-जलसों में भी गूंजे
-दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों
-अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
-हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता
-तू इधर उधर की न बात कर,
ये बता कि क़ाफ़िला कैसे लुटा,
मुझे रहज़नों से गिला तो है,
पर तेरी रहबरी का सवाल है।
-तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
-कुछ तो मजबूरियां रही होंगी
यूं कोई बेवफ़ा नहीं होता
-तुम्हारी फ़ाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दा’वा किताबी है
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चलते-चलते…
गुलज़ार की नज़्म
ये कैसा इश्क़ है उर्दू ज़बां का
मज़ा घुलता है लफ़्ज़ों का ज़बां पर
कि जैसे पान में महंगा क़िमाम घुलता है
ये कैसा इश्क़ है उर्दू ज़बां का
नशा आता है उर्दू बोलने में
गिलौरी की तरह हैं मुंह लगी सब इस्तेलाहें
लुत्फ़ देती है, हलक़ छूती है उर्दू तो,
हलक़ से जैसे मय का घोंट उतरता है
कहीं कुछ दूर से कानों में पड़ती है अगर उर्दू
तो लगता है कि दिन जाड़ों के हैं
खिड़की खुली है, धूप अंदर आ रही है
अजब है ये ज़बां, उर्दू
फेसबुक वाल से साभार।