Edirorial: वेतन आयोग में सेवाओं की गुणवत्ता पर भी बात हो, क्या सरकारी काम की धारणा बदलेगी..?

भारत सरकार ने आठवें वेतन आयोग को मंजूरी देने का फैसला किया, तो स्वाभाविक ही सरकारी कर्मचारियों में खुशी की लहर दौड़ गई है। यह दावा भी सही लगता है कि आयोग के फैसले लागू होने से अर्थव्यस्था को भी सहारा मिलेगा, जो खासतौर पर पिछली दो तिमाहियों से कुछ संघर्ष करती दिख रही है। लेकिन इन बातों के साथ नौकरशाही और सरकारी अमले को लेकर कुछ चिंताएं भी हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इनमें सबसे बड़ा मुद्दा तो सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार का है, और दूसरा निचले स्तर के पदों को समाप्त करके वहां संविदा या कांट्रेक्ट पर कर्मचारियों को रखने का।
यह सही है कि देश में सरकारी तंत्र के जरिए जनकल्याण की स्कीमों को लागू कर आम लोगों के जीवन में सुधार लाने वाले कर्मचारियों का वेतन भी संतोषजनक होना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है कि महत्वाकांक्षी और योग्य युवाओं की दिलचस्पी इन सेवाओं में बनी रहनी चाहिए। लेकिन वेतन बढऩे के साथ- साथ उनकी सेवाओं की गुणवत्ता भी बढऩा चाहिए, जो इस अनुपात में कहीं भी बढ़ती नहीं दिखाई दे रही है।
सरकारी कर्मचारियों के वेतन में बढ़ोतरी इस लिहाज से भी जरूरी होती है कि इससे अर्थव्यवस्था में मांग को मजबूती मिलती है। यह बात इसलिए भी मायने रखती है क्योंकि भारतीय इकॉनमी में कंजम्पशन का योगदान 60 प्रतिशत के आसपास बताया जाता है। इधर, अर्थव्यवस्था में मांग अपेक्षा के मुताबिक नहीं बढ़ रही है। ऐसे में आशा है कि जब आयोग के फैसले लागू होंगे तो उससे अर्थव्यवस्था में डिमांड को मजबूती देने में मदद मिलेगी।
लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि अगर देश को 2047 तक विकसित अर्थव्यवस्था बनने के लक्ष्य की ओर बढऩा है तो बड़े सुधार टाले नहीं जा सकते। इनमें भूमि और श्रम सुधारों के साथ नौकरशाही पर बढ़ते खर्च पर लगाम लगाने की जरूरत को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। पहले ही सरकारी कर्मचारियों के वेतन, भत्ते और पेंशन के खर्च का बोझ इतना ज्यादा है कि सरकार के लिए खाली पदों को भरना एक चुनौती बना हुआ है। सरकारी सेवाओं का आकर्षक बने रहना जरूरी है, लेकिन ऐसी स्थिति भी ठीक नहीं कि पढ़े-लिखे और योग्य युवा महज सरकारी नौकरी के इंतजार में अपने कीमती साल घर बैठे बर्बाद करने में समझदारी मानने लगें।
एक तरफ जॉबलेस ग्रोथ और दूसरी तरफ सरकारी भर्तियों पर अघोषित रोक से हालात गंभीर हो सकते हैं। वर्तमान में सरकार ने केवल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं और राज्य प्रशासनिक सेवाओं को छोडक़र बाकी श्रेणियों में सामान्य तौर पर पद समाप्त करना शुरू कर दिया है। जरूरत के आधार पर आउटसोर्स के माध्यम से कर्मचारी भर्ती किये जा रहे हैं। इन्हें संविदा या कांटे्रक्ट पर रखा जाता है, जिसमें सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन का कोई प्रावधान नहीं होता। यही नहीं, नौकरी की गारंटी भी नहीं होती।
सरकार ने आठवें वेतन आयोग को तो मंजूरी दे दी है, इसमें अच्छी खासी वेतनवृद्धि भी करने का प्रावधान है, लेकिन निचले स्तर पर सेवाओं की नियमितता की गारंटी कहीं नहीं दिख रही। यानि रैग्युलर पदों के कम करने का क्रम बंद होगा या ऐसे ही अस्थाई कर्मचारियों के सहारे काम चलाया जाएगा, तय नहीं है। दूसरी तरफ केंद्रीय या राज्य सेवाओं के अधिकारियों के पद भी बढ़ाये जा रहे हैैं और उनके वेतन-भत्तों के साथ ही सुविधाओं में भी वृद्धि की जा रही है। इस स्तर पर उसी क्रम में भ्रष्टाचार भी बढ़ा है और सेवाओं की गुणवत्ता में उस अनुपात में सुधार कहीं भी नहीं दिखाई दे रहा है।
सरकारी विभाग वेतन में बेहतर और काम में कमतर होते जा रहे हैं, यह सामान्य विचारधारा बन चुकी है। सरकारी काम का मतलब ही टालमटोल और घटिया दर्जे के काम से जाना जाता है, भले ही कई विभागों में बेहतर काम हो रहा हो। और शत प्रतिशत तो खराब कुछ भी नहीं होता, यह बात सरकारी विभागों पर भी लागू होता है। लेकिन काम, विशेषकर बेहतर गुणवत्ता का काम करने वालों का प्रतिशत पचास तक भी पहुंचता नहीं दिखता।
और सरकारी विभागों की एक और खासियत है। यह भी आम धारणा ही बन चुकी है कि बिना रिश्वत या कमीशन के यहां कोई काम नहीं होता। बिना वजन रखे, फाइल उड़ जाती है। फाइल आगे नहीं बढ़ती। तो जब हम सरकारी कर्मचारियों का वेतन इतना बढ़ा रहे हैं, तो यह धारणा भी खत्म करनी होगी। यह जिम्मा भी सरकार का ही है। इसके साथ ही, जब सरकारी वेतन बढ़ता है, तो बाजार गुलजार हो जाता है, वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ा दी जाती हैं। लेकिन दूसरी तरफ, निजी क्षेत्र एक अधिकांश सेक्टर में वेतन की स्थिति बहुत दयनीय है। इस पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है। बड़ी या बहुराष्ट्रीय कंपनियों में दो- चार प्रतिशत लोग ही अच्छा वेतन पा रहे हैं, बाकी जगह नौकरियों में तो हालात बहुत खराब हैं।
ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि उनकी चिंता कौन करेगा? केवल रोजगार देना या मिलना की पर्याप्त नहीं है, सरकारी वेतन के अनुपात में निजी क्षेत्र में भी बहुत सुधार की जरूरत है। अन्यथा जैसा असंतुलन अर्थव्यवस्था में है, वैसा ही असंतुलन निजी क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र की नौकरियों में बढ़ता जा रहा है। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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