प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला १ फरवरी से आरंभ होने जा रहा है। लेकिन फेसबुक पर एक मेला आरम्भ हो चुका है। साहित्यकारों की भित्तियाँ उनकी पुस्तकों के इश्तहारों से ठसाठस पट गई हैं। हर रचनाकार अपनी भित्ति पर अपनी पुस्तकों की तस्वीर चिपकाए हुए है। पुस्तक के विषय में किसी ख्यात आलोचक अथवा पत्रिका द्वारा की गई अनुशंसा से लेकर मूल्य में दी जानेवाली छूट आदि की सूचना के साथ। फेसबुक एक बाजार में बदल गया है, जहाँ लेखक अपनी पुस्तकों की हाँक लगा रहे हैं।
कुछ प्रकाशकों के व्यावसायिक दबाव के अंतर्गत, कुछ अपनी पुस्तक के अगले संस्करण पर ‘बेस्टसेलर’ की मुहर लगी देखने की ललक में, और कुछ अपनी साहित्यिक महत्त्वाकाँक्षा से प्रेरित, लेखक अपनी पुस्तकों के प्रचार-प्रसार और विक्रय के लिए पूरी सक्रियता से हर संभव प्रयत्न में जुटे हैं। बाज़ारवाद में, पुस्तकें उत्पाद बन गईं हैं और लेखक पाठक को उपभोक्ता के रूप में देखने लगे हैं।
सरकारी पुरस्कारों के लिए लालायित, कॉर्पोरेट पूंजी द्वारा आयोजित कला-साहित्य मेलों के निमंत्रण के लिए लोलुप, छपास के रोग से ग्रस्त और मानदेय के लिए आस्तीन चढ़ाने वाले ये बौने प्रेत किसी स्तर तक नीचे जा सकते हैं। इन साहित्यकारों के वास्तविक चरित्र का एक खुलासा है अपनी पुस्तकों की बिक्री के लिए हर जुगत लगाना। लेखन का दायित्व पूंजी और बाजार की हिंस्र भूमिका के विरुद्ध स्वर उठाना था, लेकिन आज लेखक स्वयं बाजार का हिस्सा बन गए हैं।
जिन्हें बाजारवाद के विरोध में खड़ा होना था, वे बीच बाजार में खड़े हैं।
मदन केशरी /फेसबुक से साभार