Openion: तनातनी में उलझा सनातनी?

-प्रकाश कुमार सक्सेना
स्वामी विवेकानन्द के गुरू थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस। एक दिन एक सिद्ध बाबा उनके पास आया और उनसे गंगा किनारे चलने की जिद करने लगा। सहज, सरल स्वामी रामकृष्ण उठे और चल दिये उस बाबा के साथ। बाबा गंगाजी के ऊपर चलता हुआ इस पार से उस पार गया फिर उस पार से इस पार वापिस आ गया। फिर बड़े अहंकार से बोला-“देखा! बीस साल की तपस्या द्वारा इस सिद्धी को पाया है।” गुरूजी सहज भाव से बोले-“अरे मूरख! नाव वाले को इकन्नी देता तो वो तुझे इस पार से उस पार और उस पर से इस पार ले आता? तूने पूरे बीस बरस इतनी सी सिद्धि हासिल करने पर बर्बाद कर दिये?”
जो स्वामी विवेकानन्द जी को जानते हैं वो उनके इन गुरू को भी जानते ही होंगे? सुना है साक्षात् माँ काली उनसे संवाद करती थीं लेकिन वे अपनी गंभीर बीमारी भोगते हुये स्वर्गवासी हुए। कभी माँ काली से अपने लिये कुछ नहीं मांगा।
रावणपुत्र से युद्ध करते हुये लक्ष्मणजी शक्ति के घात से मूर्छित हो जाते हैं। प्रभु श्रीराम हनुमानजी से कहते हैं कि वे लंका से वैद्य सुषेण को ले आयें। हनुमानजी वैद्य को लाते हैं। वैद्य सुषेण उनसे संजीवनी बूटी लाने को कहते हैं, वे पूरा पर्वत उठा लाते हैं। लक्ष्मणजी वैद्य सुषेण के इलाज से ही ठीक होते हैं। स्वयं सर्वसमर्थ श्रीराम, अष्ट सिद्धि नवनिधि के दाता श्री हनुमानजी और उन्हें अष्ट सिद्धि नवनिधि प्रदान करने वाली माता सीता किसी चमत्कार से लक्ष्मणजी को ठीक नहीं करतीं। क्यों? पता नहीं। प्रभु श्रीराम चमत्कारों या छल से मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं बने। श्रीराम चरित मानस से धर्म की जो परिभाषा निकल कर आती है वह है कर्त्तव्य।

और जब निठल्ली सत्ता अपनी प्रभुसत्ता कायम रखने के लिये छल रचती है तो वह कालनेमि, कर्त्तव्यों से भागने वाले राजा के लिये आडम्बरों का सहारा लेती है और उसका पूरा गिरोह उसे ही धर्म घोषित करने की माया रचता है।

हनुमान चालीसा की ही चौपाई है-“भूत पिशाच निकट नहीं आये, महावीर जब नाम सुनाये।” लेकिन धूर्त और निठल्ली सत्ता देश की जनता को भूतों के संसार की सैर कराती है और अपने निठल्लेपन का सारा दोष उन भूतों पर डाल देती है। उन्हीं भूतों द्वारा बनाये संसाधनों को बेचती है और पिशाचों की तरह जनता का रक्त भारी करों के रूप में पीती है और अपने गिरोह को पिलाती है। उसके पास जनता के लिये कोई जवाबदेही नहीं है। भूतों को कोसना और तरह तरह के भयों से भयभीतकर भयादोहन करना। बस यही उसके कर्त्तव्य रह गये हैं और यही अब धर्म रह गया है। तो हे चमत्कारी बाबाओं! इस देश को ऐसे भूत, पिशाचों और कालनेमियों से मुक्त करो न कि उनका मोहरा बनों। जो भूत पिशाच की पीड़ा से युक्त भक्त आपके दरबार में अपने इलाज के लिये आते हैं वे अधिकांश इसी सत्ता द्वारा उत्पन्न बीमारियों से पीड़ित हैं। जिसे आप भूत पिशाच की पीड़ा बताते हैं उसे मनोचिकित्सक निराशा, अवसाद और भयानक दुख आदि से पैदा हुई बीमारियां बताते हैं। इस देश का दुर्भाग्य यही है कि सदियों से शोषण और असम्मान ने समाज में खाई खोदकर इसे बांटे रखा। बिकाऊ व लालची लोग छोटे छोटे लालच में सौदे करते रहे और अपनी लूट और शोषण के लिये धर्म को आड़ बनाते रहे। यह सनातन तो सनातन नहीं है। तनातनी उस गिरोह द्वारा पैदा की जा रही है जो धर्म की आड़ में शोषण करते हैं। वर्ना सनातन लगातार बहने वाली पवित्र नदी है जिसके पर्यावरण (जैविक तंत्र) को बचाने में कुछ लोग लगे रहते हैं। दूसरी ओर वह ढोंगी गिरोह है जो इसका लगातार दोहन/शोषण करता है और दुनियाभर की सारी गन्दगी इसमें छोड़कर इसकी पवित्रता को सड़ांध में बदलता रहता है। इस धर्म की आत्मा अध्यात्म है, दर्शन है और इससे संबंधित विज्ञान को तर्कशास्त्र कहते हैं। तर्क इसकी पवित्रता को बनाये रखने के लिये जरूरी हैं और हर तर्क करने वाला सनातन विरोधी नहीं होता। हाँ, एक सत्ता पोषित पूरा गिरोह इन तर्कों को अंधभक्ति और आडम्बरों से कुचलने में लगा है।

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