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वायदों के बाद इरादों का दौर… राजनीति की नई इबारत लिखेंगे या वही ढाक के तीन पात…?

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लोकसभा चुनाव के बाद अभी भी उसके परिणामों को लेकर समीक्षा, विश्लेषण का दौर चल रहा है। केंद्र में सरकार बनाने के बावजूद भाजपा के सामने सवाल ये है कि पार्टी खुद बहुमत के आंकड़े को नहीं छू पाई, जबकि वो चार सौ पार के नारे को सच साबित करने का दावा करती रही। दूसरी तरफ विपक्ष के सामने सवाल ये है कि कुछ राज्यों में भाजपा विरोधी माहौल क्यों नहीं बना? यही नहीं, कुछ राज्यों में ऐसा सूपड़ा साफ हुआ, जिसकी उम्मीद नहीं थी, क्या वाकई उसके खिलाफ माहौल था, भाजपा की लहर थी, या कोई और फैक्टर रहा? आखिर पता चले तो अगले चुनाव के पहले उस पर काम किया जा सके।
अब सवालों का जवाब तलाशने वाले तलाशने में जुटे हुए हैं, लेकिन क्या सत्तापक्ष और विपक्ष बदली हुई राजनीतिक परिस्थितिओं के अनुसार चलना शुरू कर पाए हैं? और क्या उन्होंने अपनी राजनीति के विन्यास को नए सिरे से बनाने की कोशिश शुरू की है? पहले तो इन सवालों के जवाब तलाशने होंगे। इसके लिए सत्तारूढ़ एनडीए का नेतृत्व कर रही भाजपा और विपक्षी इंडिया का नेतृत्व कर रही कांग्रेस के पिछले एक महीने में सामने आए रवैए पर गौर करना जरूरी होगा।
देखा जाए तो भाजपा अंदरूनी तौर तो सहमी हुई है। उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे राज्यों में खासकर उसकी उम्मीदों पर पानी फिरा है। इसके पीछे के कारण उन्हें मालूम भी हैं, और नहीं भी। फिर भी इस पर काम चल रहा है। ऊपरी तौर पर भारतीय जनता पार्टी के पैरोकार बार-बार निरंतरता का शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं और यह बताना चाहते हैं कि कुछ नहीं बदला है। वही प्रधानमंत्री हैं। थोड़े से मंत्रियों को छोडक़र वही मंत्री हैं। उनके मंत्रालय भी वही हैं। वही दावेदारियां हैं। सरकार का एजेंडा पुराना ही है, जो पिछले दस साल से चल रहा था।
ऐसा लगता है जैसे भाजपा के लिए 4 जून का जनादेश कुछ नया नहीं आया है। पार्टी की मातृ संस्था संघ ने कई बार उसे राजनीतिक परिस्थिति में हुए परिवर्तन का अहसास दिलाने की कोशिश की है। यह असंभव है कि भाजपा ने संघ की आवाज न सुनी हो। लेकिन वह अनसुनी करने का प्रहसन तो कर ही रही है। भाजपा के रणनीतिकार मानते हैं कि उसकी सीटों में आई गिरावट का मुख्य कारण चुनाव में हुई राजनीतिक बदइंतजामी है। कुछ नेता तो कहते सुने जा सकते हैं कि अगर टिकटों के बंटवारे में कुछ होशियारी बरती जाती, अगर कार्यकर्ताओं की तरफ से सुस्ती न दिखाई जाती, कुछ नेताओं ने नासमझी वाले बयान न दिए होते और अगर पार्टी के भीतर गुटबाजी को नियंत्रित कर लिया जाता तो 2019 के चुनाव परिणाम को दोहराया जा सकता था।
सीधे तौर पर भाजपा यह माहौल बना रही है कि मोदी सरकार के खिलाफ किसी तरह की एंटी-इनकम्बेंसी नहीं थी, इसलिए किसी विशेष परिवर्तन की जरूरत नहीं है। राजनीतिक प्रबंधन को दुरुस्त करने से सब ठीक हो जाएगा। उत्तर प्रदेश में योगी की अनदेखी का मामला अहम बताया जा रहा है तो महाराष्ट्र में शिवसेना  और एनसीपी में तोडफ़ोड़ पार्टी के लिए अच्छा नहीं कहा जा रहा है। लेकिन नेतृत्व शायद इन मुद्दों को मुद्दा ही नहीं मानता। फिलहाल तो पार्टी पुराने रवैये पर कायम ही दिख रही है। यह बात और है कि तमाम दिग्गजों के चेहरों पर वो रौनक नहीं दिख रही और उनके भाषणों-बयानों में बदलाव भी साफ दिख रहा है।
दूसरी तरफ विपक्ष का नेतृत्व कर रही कांग्रेस पर नजर डालें तो लगता है कि विपक्ष की दावेदारी के लिए एक नई रणनीति बनाई है। पहले दौर में वह देश के सामने अपनी बढ़ी हुई ताकत का प्रदर्शन करना चाहती है। वह जाहिर करना चाह रही है कि उसकी वापसी का दौर शुरू हो गया है। नई लोकसभा के पहले सत्र में उसने अपना दबदबा बनाकर दिखाया। अपनी बात एक के बाद एक भाषणों में राहुल गांधी, महुआ मोइत्रा, राजा, अखिलेश यादव आदि ने असरदार तरीके से सुना दी, और प्रधानमंत्री जब बोले तो विपक्षी सांसद लगातार मणिपुर के लिए नारेबाजी करते रहे।
इसके अलावा नीट पर्चा-लीक के सवाल पर युवकों-छात्रों के साथ विपक्ष की आंदोलनकारी जुगलबंदी ये संकेत दे रही है कि विपक्ष जनता के, खासकर युवा वर्ग से जुड़े मुद्दों को लगातार उठाया जाता रहेगा। अभी इस तरह के कई मौके आने वाले हैं। खुद सरकार अपनी अक्षमताओं और विफलताओं के कारण प्लेट पर रखकर इस तरह के अवसर विपक्ष को देने वाली है, क्योंकि सत्ता में बैठी पार्टियां इन मुद्दों को जब चुनाव में अहमियत नहीं दे रही थीं, अब तो सरकार  ही आ गई। अग्निवीर योजना और पुरानी पेंशन स्कीम की मांग पर मध्यवर्ग के आर्थिक असंतोष का सिलसिला कभी भी शुरू हो सकता है। इधर ऐसी खबरें आनी शुरू हो गईं हैं कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए पंजाब और हरियाणा के किसान पश्चिमी यूपी के साथ मिलकर एक बार फिर दिल्ली की तरफ कूच करने की तैयारी कर रहे हैं।
देखा जाए तो बदले हुए हालात में केंद्र की नई सरकार को दो तरह के दबाव का सामना करना पड़ रहा है। इनमें पहला है संघ परिवार, जिसके संगठनों ने कथित तौर पर सरकार को अपना मांग-पत्र दे दिया है कि अगले बजट में वे क्या-क्या चाहते हैं। ऐसा दस साल में पहली बार हुआ है। खास बात यह है कि विपक्ष ने जिन मुद्दों पर चुनाव लड़ा है, संघ के मांग-पत्र में कमोबेश वे सभी मुद्दे हैं। संघ हमेशा से भाजपा के खिलाफ यदि कुछ बोलता भी है तो वो विपक्ष की आवाज  नहीं होती, अपितु उसकी सोची समझी रणनीति का ही हिस्सा होती है। यानि ऊपरी तौर पर विपक्ष की जगह लेकर ऐन चुनाव में भाजपा के साथ पूरा संघ खड़ा हो जाता है। हालांकि इस बार कुछ राज्यों में उसकी दूरियां चर्चा में है।
हालांकि भाजपा के अंदर ही अंदर एक मुद्दा और अहम होता दिख रहा है। वो है, दूसरी पार्टियों से होने वाली भर्ती और आयातित नेताओं को मिलने वाला महत्व। आज भी लाखों कार्यकर्ता ऐसे हैं, जिन्हें आज तक कुछ नहीं मिला। कई नेता भी ये कहने लगे हैं कि उनमें क्या कमी है, जो उन्हें मंत्री या अन्य पद नहीं दिया जा रहा है? ये कहीं न कहीं असंतोष को जन्म देने वाली परिस्थितियां हैं। हालांकि मोदी-शाह के रहते ये आवाजें बुलंद हो पाएंगी, इसकी उम्मीद बहुत कम ही है।
अब बात करते हैं, केंद्र में बैठी सरकार के दो अहम अंगों की, ये हैं जदयू और टीडीपी। भाजपा अपने दम पर सरकार में नहीं आ पाई, तो इनका सहारा लेना पड़ा। अब इन दोनों पार्टियों ने प्रस्ताव पास करके हजारों करोड़ रुपए के आर्थिक पैकेज के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया है। संसद में जिस समय विपक्ष भाजपा और मोदी पर हमले कर रहा था, उस समय ये दोनों सहयोगी दल न विचलित लग रहे थे, और न ही उन्होंने तत्परता से सरकार का बचाव किया। वे मौजूदा सरकार में सहयोगी हैं। लेकिन अतीत की दो भाजपा सरकारों के कामों की जिम्मेदारी लेने के मूड में वो फिलहाल तो नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में भाजपा कितनी सहजता से सरकार चला पाएगी, यह भी सवाल तो है।
राजनीतिक विशेषज्ञ सवाल उठा रहे हैं, क्या राजनीतिक दल जनादेश को सही ढंग से पढ़ पा रहे हैं? या फिर वे बदली हुई परिस्थिति के हिसाब से अपनी राजनीति को नए सिरे से गढऩे की कोशिश कर रहे हैं? राहुल- अखिलेश के कुछ मुद्दों की जहां तारीफ हो रही है, वहीं कुछ बयानों को दीर्घकालिक राजनीति के हिसाब से उचित भी नहीं माना जा रहा है। कुल मिलाकर अभी पक्ष और विपक्ष की रणनीति बहुत साफ तो नहीं है, पर दो महत्वपूर्ण राज्यों उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए दोनों ही पक्षों के अपने इरादे स्पष्ट तो करने ही होंगे।
– संजय सक्सेना

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