Mahatma Gandhi: हत्या का चक्रव्यूह और अकेले गान्धी…
गान्धी की हत्या 30 जनवरी 1948 को हुई. तब भी इसको बहादुरी मानने वाले कुछ लोग थे, आज शायद अधिक हो गए हैँ क्योंकि आज वालोँ को गान्धी, उनके काम और विचारोँ का पहले की तुलना मेँ कम पता है. और जिस तरह उनकी हत्या हुई उसमेँ गोली चलाने वाले नाथुराम गोडसे ने कोशिश की कि वह इसे अकेले भर का मामला बनाए लेकिन ज्यादा समय नहीँ लगा जब पुलिस ने षडयंत्र का पता लगाया और कई सारे षडयंत्रकारियोँ को पकड लिया. और ऐसे लोग कम नहीँ हैँ जो मानते हैँ कि गान्धी के ऊपर इससे पहले हुए हमलोँ के समय ही पुलिस इसी तरह मुस्तैदी दिखाती तो हत्या को टाला जा सकता था क्योंकि बाद की जांच परख मेँ यही बात सामने आती रही कि गान्धी की हरिजन यात्रा के समय से उन पर हमले करने वाला जमात लगभग एक ही था और इन सबका सूत्र उस कथित वीर सावरकर से जुडता लगता है जिनकी आज काफी पूछ हो गई है और जिनकी तस्वीर अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार ने संसद भवन के अन्दर लगवाई. यह मानी हुई बात है कि सावरकर ब्रिटिश सरकार से कई बार माफी मांगकर जीवन बचाए हुए थे और सरकारी पेंशन भी पाने लगे थे. इसलिए हो सकता है कि तब की सरकार उनके षडयंत्र मेँ भागी हो या जानकर भी अनजान बनी रही हो लेकिन 20 जनवरी को उसी बिडला हाउस मेँ जब मदनलाल पाहवा ने बम फेंका था और तीस जनवरी वाली हत्यारा मंडली वहाँ मौजूद थी उसकी जांच और धर-पकड तो आजाद भारत की पुलिस कर सकती थी. बल्कि जो जांच बाद मेँ हुई उसमेँ भी कई झोल बहुत साफ दिखते हैँ (जैसे तीन नामजद लोग आज तक गिरफ्तार ही नहीँ हो पाए हैँ) लेकिन 20 जनवरी के बम कांड के बाद तो सरकार और पुलिस इस कदर ढीला आचरण करती है कि उसके षडयंत्र की बू आने लगती है जो था नहीँ. एक तो बयान उर्दू मेँ थे और बम्बई पुलिस मेँ कोई उर्दू जानने वाला ही न था जबकि षडयंत्र के तार महाराष्ट्र से जुडे थे. जो इंस्पेक्टर पाहवा के बयान का अनुवाद लेकर चला वह बीच मेँ तीर्थ और गन्गा स्नान मेँ लग गया. इस तरह की ढील और लापरवाही हर कदम पर दिखती है और यही गिरोह और इसके षडयंत्रकर्त्ता दस दिन बाद ही बीच दिल्ली की प्रार्थना सभा मेँ गान्धी की हत्या करने मेँ कामयाब हो जाते हैँ. उससे पहले के हमलोँ का भी सरकार और पुलिस ने पर्याप्त नोटिस नहीँ लिया. और जो लोग गान्धी की हत्या के लिए भारत विभाजन, शरणार्थियोँ की तकलीफोँ और पाकिस्तान को 55 करोड रुपए दिलाने की गान्धी की कोशिश (उनका दिल्ली का अनशन इसके लिए नहीँ था लेकिन उसे भी इसी रंग मेँ पेश किया गया) जैसे बहानोँ से जोडकर देखते और बताते हैँ उन्हेँ यह जबाब भी देना होगा कि फिर गान्धी पर पुणे और पंचगनी मेँ हमला क्योँ हुआ, हरिजन यात्रा मेँ कई जगहोँ पर उन पर हमले क्योँ हुए और विभाजन की आड लेने वाले गिरोह के लोग ही हरिजन यात्रा और पुणे पैक्ट से नाराज क्योँ थे (आज इस पैक्ट से नाराज होने वाले दलित हैँ, तब सनातनी थे). और तो और गान्धी पर दक्षिण अफ्रीका मेँ भी दो बार जानलेवा हमला हुआ था तो तब की नाराजगी क्या थी. तब तो गान्धी ने न जाति व्यवस्था पर चोट की थी न कथित महान ‘हिन्दू राष्ट्र’ पर. वे तब भी अन्याय दूर करने और बराबरी की लडाई लडने निकले थे और जीवन के आखिरी दिन तक वही करते रहे. और गान्धी का तो एक ही रुख रहा-वे ऐसे हमलोँ से कभी न डरे और हर बार हमलावरोँ को माफ किया और उनको सद्बुद्धि आने की प्रार्थना की. आश्चर्य नहीँ कि गान्धी के पुत्र रामदास गान्धी, उनके सबसे घनिष्ठ मित्रोँ मेँ एक और उनके दर्शन के सबसे अच्छे व्याख्याकार किशोरलाल मश्रुवाला जैसे लोग नाथुराम को भी माफ किए जाने की मुहिम चलाते रहे. गान्धी पर जब गीन पम्फ्लेट बांटने से नाराज गोरोँ ने हमला किया उससे पहले शासन ने प्लेग के क्वाराइंटीन के नाम पर गान्धी के दक्षिण अफ्रीका पहुंचने वाले सभी यात्रियोँ को समुद्र मेँ ही 21 दिनोँ तक रखा और तनाव बढने दिया मानो गान्धी दल बल समेत दक्षिण अफ्रीका जीतने आ रहे होँ. पर गान्धी भी गान्धी ही थे, जैसे अवसर बना पैदल ही चल पडे. बहुत पिटाई हुई और अगर एक परिचित पुलिस अधिकारी की पत्नी सन्योग से वहाँ से गुजरती न आ जाती तो उस दिन उनकी मौत निश्चित थी. गान्धी इलाज के लिए अस्पताल जाने की जगह अपने पादरी मित्र डोक के घर पहुंचाए गए और उन्होँने हमलावरोँ को माफ करने तथा कोई केस न चलाने की अर्जी दी. जब सबसे बडे अधिकारी ने जिद की तो गान्धी ने कहा को दोषी तो सरकार और आप लोग हैँ, हमला करने वाले भटके हुए लोग थे. जब शादी के रजिस्ट्रेशन के सवाल पर सरकार द्वारा फैलाए अफवाह के असर मेँ आकर पठान जवान मीर आलम ने गान्धी पर हमला करके उनकी जान लेने की कोशिश की तो होश आते ही सबसे पहले गान्धी ने उसके खिलाफ एक्शन न होने की वकालत की. मिली पोलक ने तब की जो जीवनी लिखी है उसमेँ विस्तार से यह प्रसंग आया है और यह भी बताया गया है कि मीर आलम को स्थिति समझ आने के बाद वह गान्धी का रखवाला बन गया. जब गान्धी के मन्दिर प्रवेश आन्दोलन और छुआछूत विरोधी मुहिम से नाराज उसी हिन्दुत्ववादी मंडली ने पुणे मेँ गान्धी की गाडी समझ कर साथ चलने वाली कार पर बम फेंका तो उसमेँ सवार तीन लडकियोँ की जान बच गई. गान्धी की कार रेलवे फाटक पर रुक जाने से पीछे थी. पर गान्धी ने वहाँ पहुंचकर सभा की और अपना छुआछूत मिटाने का निश्च्य दोहराया. यह हमला 19 जून 1934 को हुआ था. उन पर अगला हमला इसी सिलसिले मेँ 16 जुलाई को भी हुआ. कराची की सभा मेँ फरसे से हमला हुआ. नाराजगी एक ही थी, गिरोह एक ही था. और फिर 22 जुलाई को पंचगनी मेँ जब गान्धी की सभा मेँ उन पर मंच पर हुए हमले मेँ एक हमलावर को दो गान्धी समर्थकोँ ने पकड लिया तो रहस्य खुला कि मंच पर नाथुराम गोडसे, विष्णु करकरे, दिगम्बर बडगे और गोपाल गोडसे थे, उसी तरह विश्व हिन्दू परिषद और संघ के साथ सावरकर का आशीर्वाद था, हथियार मंगाने और अन्य खर्चोँ के लिए धन्ना सेठ थे. दूसरी ओर गान्धी और गान्धीवादियोँ का सच था. सुशीला नैयर उस समय मंच पर गान्धी के साथ थीँ और उन्हेँ जांच मेँ गवाही के लिए बुलाया गया. चूंकि वे किसी को देखकर चेहरा याद न रख सकीँ तो किसी का नाम न लिया. किसी निर्दोष को बचाने मेँ सारे षडयंत्रकारी बच गए जो अंतत: गान्धी की जान लेने मेँ कामयाब हो गए. दो कोशिशेँ और हुईँ. गान्धी जब जिन्ना से वार्ता के लिए बम्बई चलने वाले थे तो उन्हेँ पहले ही मारकर रोकने के लिए नाथुराम गोडसे और जी. एल. थत्ते नामक दो लोग सेवाग्राम पहुंचे. इन्होँने जब आश्रम के दरवाजे पर हंगामा किया तो पकड लिया गया. तब थत्ते के पास से एक लम्बा छुरा निकला. ये दोनोँ सेवाग्रामाने से पहले सावरकर से मिले थे. इस घटना के कुछ ही समय पहले गुरु गोलवरकर भी वर्धा आए थे. एक और कोशिश उस रेलगाडी को बम से उडाने की हुई जिससे गान्धी बम्बई से पुणे जाने वाले थे. सौभाग्य से ड्राइवर की नजर पटरी पर पडे बम पर पड गई और उसने गाडी रोकने की कोशिश की. इसमेँ इंजन तो बम की चपेट मेँ आया और उसे नुकसान हुआ लेकिन बडा हादसा नहीँ हो पाया. पर 20 जनवरी को दिल्ली की प्रार्थना सभा मेँ ही मदनलाल पाहवा द्वारा बम फेंके जाने के बाद गृह मंत्रालय और पुलिस महकमे ने जैसी ढीलासीली की उसके लिए तो उन्हेँ दोष देना ही पडेगा. गान्धी तो बम फूटने पर भी और उपवास की कमजोरी के बावजूद अपना प्रवचन देते रहे और बाद मेँ कहा कि उन्हेँ आवाज सुनकर लगा कि सैनिक अभ्यास कर रहे हैँ. लेडी माउंटबेटन के बधाई देने पर उन्होँने कहा कि इसमेँ बधाई की कोई बात नहीँ है. अगर राम का नाम लेते हुए जान निकले तब बधाई बनती है. पर पाहवा लगातार यह कहता रहा कि वह इस काम मेँ अकेला था. लेकिन थोडी पूछताछ मेँ ही बात खुल गई कि यह बडा षडयंत्र है और इसमेँ पूरी टीम अलग अलग जगह से दिल्ली आई थी, अभ्यास किया था, हथियार जुटाए थे और बम विस्फोट के बाद मची अफरा तफरी का लाभ लेकर हत्या की तैयारी थी. इसमेँ सफल न होकर सब लोग भागने मेँ भी सफल हुए जिनमेँ चार तो एक ही टैक्सी से भागे थे. और इसमेँ कोई बडा फायनेंसर भी शामिल था जो हथियार से लेकर होटल और हवाई यात्रा का बिल भर रहा था. लेकिन सब सुराग पाकर भी पुलिस क्योँ सुस्त हुई, पटेल के रहते इस किस्म की लापरवाही क्योँ हुई (वे सिर्फ यह कहते रहे कि गान्धी सुरक्षा पुलिस नहीँ लेंगे) यह दुर्भाग्य था या कुछ और कहना मुश्किल है. लेकिन इतना भी नहीँ हो पाया कि गान्धी की सभा मेँ आने वालोँ की तलाशी ही ली जाए. ऐसा भी हुआ रहता तो तीस जनवरी की घटना न होती l
साभार : Arvind Mohan