भूली बिसरी यादें…वो मांगे की आग…

अगर आज कोई आपसे कहे कि जरा पड़ोस से थोड़ी आग तो मांग लाइए…तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या होगी ?
क्या आपने कभी आग मांगी है ?
या फिर कभी आपने मांगी हुई आग से जलता हुआ चूल्हा देखा है ?
गांव से चलकर शहर पहुंची हमारी पीढ़ी को शायद आग का मांगना,मांगी हुई आग से चूल्हा जलाना और बांटने के लिए आग को सहेजा जाना याद होगा।लेकिन जिगर की आग से बीड़ी जलाने वाले युवाओं के लिए आग मांगना महज कौतूहल की बात होगी!वे कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि आज से कुछ साल पहले तक आग का मांगना ग्रामीण जीवन का अहम हिस्सा हुआ करता था। हर रोज सुबह उठ कर पड़ोसी से आग मांगना सामान्य दिनचर्या होती थी!
माचिस,पत्थर वाले लाइटर और गैस के लाइटर के आने से पहले गांवों में आग जलाने का मुख्य साधन मांगी हुई आग ही थी।पचास साल पहले ज्यादातर गांवों में आग से ही आग जलाई जाती थी!
आज अचानक आग की मंगनई याद आ गई।उसके साथ ही मन  पचास साठ साल का सफर कुछ सेकेंड में पूरा कर पुरानी दुनियां में लौट गया!इसी के साथ यह सवाल मन में आया कि होठों में दबी अपनी सिगरेट जलाने के लिए किसी भी अजनबी से लाइटर या माचिस बिना झिझक मांग लेने वाले युवाओं ने क्या मांगे की आग से चूल्हा जलाने के बारे में सुना है ?क्या वे जानते हैं कि एक जमाने में ग्रामीण भारतीय समाज में आग मांगना एक सामान्य प्रक्रिया थी?
पहले मैं अपनी बात करता हूं!जीवन में सिगरेट जलाने के लिए मैने कभी किसी से माचिस या लाइटर नहीं मांगा!लेकिन बचपन में लगभग हर रोज आग का मांगना देखा।खुद मांगी भी।और हां…आग की चोरी भी की!
गांव में आमतौर पर हर घर में अपनी आग सहेज कर रखी जाती थी।उसका तरीका यह होता था कि खाना बनाने के बाद चूल्हे की आग को राख में दबा दिया जाता था।उसमें एक नया कंडा (गोबर का उपला) दबा दिया जाता।वह उस राख के साथ धीरे धीरे सुलगता रहता।जिसे जब आग की जरूरत होती तब उसी सुलगते कंडे में से आग ले लेता।उसका भी तरीका बड़ा मजेदार होता।आमतौर पर सूखे कंडे के एक टुकड़े को सुलगते कंडे पर रख कर जोर जोर फूंक मारी जाती।कुछ ही सेकेंड में सूखा कंडा आग पकड़ लेता।वह कंडा उठाकर मांगने वाले को दे दिया जाता।वह उसे कुछ समय के लिए हवा में हिलाता।वह पूरी तरह जलने लगता तो दूसरे कंडे पर रख कर अपने घर ले जाता।
आग सबसे ज्यादा सुरक्षित दूध वाली बरोसी में रहती थी।घर में मां जब सुबह दूध की हांडी बरोसी में रखती तो उसके लिए पहले से तैयारी करती।बड़े बड़े कंडे सुलगाए जाते।कुछ देर उन्हें जलने दिया जाता ताकि उनकी “गर्मी” निकल जाए।जब दूध की हांडी उस पर रखी जाए तो दूध उफन कर बाहर न निकले!हांडी पूरे दिन बरोसी में रहती।दिन में दो तीन बार उसमें कंडे बढ़ाए जाते।शाम तक उस दूध में मलाई की जो परत जमती उसके स्वाद का कोई सानी नहीं था।उसे याद करके आज भी मुंह में पानी आ जाता है।आग बांटने के लिए अक्सर बरोसी से ही आग निकाली जाती।क्योंकि चूल्हा तो खाना बनने के बुझाया जाता था।उसकी आग खत्म हो जाती थी।लेकिन बरोसी की आग सदा सुलगती रहती।शाम को हांडी निकालने के बाद एक बड़ा कंडा उसकी राख में दबा दिया जाता।अगले दिन सबेरे बरोसी सुलगाने और चूल्हा जलाने के लिए आग वही मुहैया कराता।
तब आग को मांग कर घर तक सुरक्षित पहुंचाना भी एक कला थी।अगर जलते कंडे का टुकड़ा दूसरे कंडे पर रखा गया हो तो इस बात का पूरा ख्याल रखना पड़ता था कि वह नीचे न गिर जाए!अगर सुलगता हुआ कंडा होता तो उसे लगातार सुलगाए रखने का जतन भी करना पड़ता था।
उन दिनों गांव में आग के कई अड्डे होते थे। चौपाल पर हुक्का और चिलम पीने वालों की आग अलग होती थी।उनकी बरोसी या धूना में हमेशा आग दबी रहती थी।जब जिसे तलब लगी उसने चिलम भरी,बरोसी से आग निकाली,चिलम पर रखी और लगा दिया दम। कई लोग तो इतने उस्ताद होते थे कि एक दम में ही चिलम से लपट निकाल दिया करते थे।
उन दिनों आग के कुछ और स्थाई अड्डे भी होते थे।मसलन खेत की रखवाली के लिए बनाए गए मचान के नीचे आग हमेशा सुलगती रहती थी।वह आग हुक्का तमाखू के अलावा भुट्टे,मूंगफली,आलू,शकरकंद तथा चना मटर भूनने के भी काम आती थी।
हमारी बड़ी जिया(ताई जी) बताती थीं कि इंसान की तरह आग का भी बचपन,जवानी और बुढ़ापा होता है।बड़ी जिया के मुताबिक बारिश के मौसम में आग बूढ़ी होती है।इन दिनों में बड़ी मुश्किल होती है आग जलाने में।सच में उन दिनों बारिश में चूल्हा जलाना भी एक बड़ा काम होता था।कई बार तो गीले ईंधन को जलाना आग की पहुंच से भी बाहर हो जाता था।
जाड़े के मौसम में आग का बचपन होता है।उन दिनों सब उसका साथ चाहते हैं।गांवों में सामूहिक रूप से आग तापने का चलन था।चौपालों पर लोग आग के आसपास गोल घेरा बनाकर तापते!इस दौरान दुनियां जहान की बातें होती। हर चौपाल का तपता अपने आप में एक अलग नेटवर्क चलाता था आज के एयरटेल और जियो की तरह।
बड़ी जिया के मुताबिक गर्मी के मौसम में आग जवान होती है।उन दिनों सब उससे दूर रहना चाहते हैं।जरा जरा सी रगड़ पर आग भभक उठती।गर्मी में आग का सामना करने की हिम्मत सिर्फ घर की महिलाओं और पेशेवर रसोइयों में ही होती थी।वे भी आग का सामना मजबूरी में ही करते थे।अगर वे आग से बचते तो घर में खाना कैसे बनता?
   उन दिनों आग लगाने का एक जरिया नदियों की तलहटी में पाए जाने वाले चकमक पत्थर भी होते थे। पारखी नजर वाले लोग ही इन पत्थरों को पहचान पाते थे।अक्सर चरवाहों के पास चकमक पत्थर होते थे।वे अपने साथ रुई भी रखते थे।पत्थरों को आपस में रगड़ कर ,रुई के जरिए आग जलाई जाती थी।तब यह कहा जाता था कि चकमक पत्थर पर मौसम का कोई असर नहीं होता था।
पिछले पांच दशक में आग जलाने के नए नए उपकरण आ गए हैं।कुछ लोग अपनी जीभ से ही आग लगा देते हैं!कुछ बुझी हुई आग की राख को हवा देकर बस्तियां से सुलगा देते हैं।कुछ के अहम की गर्मी बड़े बड़े देश जला रही है।अब आग अपने आप सैकड़ों मील उड़ कर चली जाती है।
आग मांगने का जमाना अब कहां….अब तो आग उड़ाई जाती है!अब आप यह भी कह सकते हैं कि जिगर की आग से बीड़ी जलाने की कल्पना करने वाले लोग सड़क पर चलते चलते जलने लगते हैं!जंगलों का जलना और ज्वालामुखी का फटना तो सामान्य बात हो गई है।
ऐसे में अगर किसी से युवा से  पूछा जाय कि क्या तुमने मांगे की आग में पका खाना खाया है? हो सकता है कि आज का अति उत्साही युवा आपको बता दे कि वह मांगे की आग से नही स्विगी से मंगा कर खाना खाता है।
वैसे भी अब पूरी दुनियां में चारो ओर आग ही आग है।कौन किससे मांगे और कौन किसको दे?लेकिन हमें आज भी मंगनई की आग याद है!हमारे कानों में आज भी वह डायलॉग गूंजता है – हमें तन्नक आग दे दो बड़ी अम्मा!!!
अरुण दीक्षित
8 जुलाई 2024
भोपाल

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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