Edirorial: काप सम्मेलन बनाम जलवायु परिवर्तन
अजरबैजान की राजधानी बाकू में 29वीं कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज यानि कॉप-29 का आयोजन हुआ, परंतु जिस तीखी असहमति और कड़वे बयानों के साथ इस सम्मेलन का समापन हुआ, उसे किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता। जलवायु परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर विकासशील और विकसित देशों के बीच अविश्वास और संदेह का माहौल बना। यह भविष्य में सभी देशों की साझा पहल की संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकता है।
इस आयोजन में एक तरह से विकासशील देशों को छला गया और इसके पीछे बड़ा कारण रहा विकसित देशों की कंजूसी। विकसित देशों ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए विकासशील देशों की मदद की बात कही थी और इसके लिए सालाना 1.3 ट्रिलियन डॉलर तक का योगदान जुटाने की बात भी सामने आई थी, लेकिन विकसित देश मात्र सालाना 300 बिलियन डॉलर पर आकर ठहर गए। सीधे शब्दों में कहा जाए तो उन्होंने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी को लेकर विकसित देश बहुत गंभीर नहीं दिख रहे हैं।
एक तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन क लिए मामूली लक्ष्य तय किया गया, इसके साथ ही इस मुद्दे पर ढंग से चर्चा तक नहीं होने दी गई। यही नहीं, संबंधित राष्ट्रों को विरोध दर्ज करने का मौका भी नहीं दिया गया। इससे भी विकासशील देशों में नाराजगी का माहौल देखने को मिला। एक और बात यह रही कि यह रकम भी विकासशील देशों को पूरी तरह अनुदान के रूप में मुहैया नहीं कराई जाएगी। इसे विभिन्न सरकारों के साथ ही प्राइवेट स्रोतों से भी जुटाने की बात है जिसमें मल्टिलैटरल डिवेलपमेंट बैंक भी शामिल हैं। स्पष्ट है कि कर्ज और उससे जुड़ी शर्तें भी विकासशील देशों के हिस्से में ही आने वाली हैं।
दिलचस्प बात तो यह रही कि अमेरिका में निर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का कार्यकाल अभी शुरू नहीं हुआ है, और न ही वह इस सम्मेलन में मौजूद रहे, लेकिन इसके बावजूद इस सम्मेलन पर उनका साया महसूस होता रहा। यह बात सबके ध्यान में थी कि आगामी 20 जनवरी से शुरू हो रहे उनके कार्यकाल के दौरान जलवायु परिवर्तन के मसले पर अमेरिका से किसी तरह के पॉजिटिव रुख की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसे में कई विकसित देशों के प्रतिनिधियों की दिलचस्पी यह सुनिश्चित करने में थी कि फंड कम हो या ज्यादा, पर क्लाइमेट चेंज को लेकर जिस तरह की वैश्विक सहमति हासिल की जा चुकी है, उसे आने वाले वर्षों में कोई नुकसान न पहंचाया जा सके। जहां तक भारत की बात है, तो उसने अपनी अब तक की भूमिका के अनुरूप ही विकसित देशों के नकारात्मक रुख का तीव्र विरोध करने में विकासशील देशों की अगुआई की। साथ ही ग्लोबल साउथ के देशों की प्राथमिकताओं का ख्याल न रखने वाले इस फैसले को गलत भी बताया।
बैठक की बात करें तो पहले अमीर और विकसित देश मात्र 100 बिलियन डॉलर देने पर ही राजी थे। लम्बी बातचीत और बैठकों के बाद यह देश 300 बिलियन के आँकड़े तक पहुँचे, जबकि इनका वायदा कुछ और था। इस फैसले को जहां यूरोपियन देशों ने क्रांतिकारी बताया, वहीं दक्षिणी ध्रुव यानि अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमेरिका में स्थित देशों ने इस समझौते को आधा-अधूरा बताया है। यह देश माँग कर रहे थे कि उन्हें 1.3 ट्रिलियन डॉलर अर्थात 100 लाख करोड़ से अधिक दिए जाएँ। विकसित देश इस पर राजी नहीं हुए।
यह तीन सौ बिलियन डालर इन देशों को या तो कर्ज या फिर किसी प्रोजेक्ट में लगाने के लिए सहायता के तौर पर दिया जाएगा। यह पैसा वह सभी विकसित देश दे रहे हैं जिनके 19वीं, 20वीं और 21वीं शताब्दी में जरूरत से कहीं ज्यादा कोयला, तेल और बाकी ईंधन उपयोग करने के साथ ही पेड़ काटने के कारण आज विश्व भीषण प्रदूषण के साथ ही जलवायु परिवर्तन की समस्या की गिरफ्त में आया है। हालाँकि, यह पैसा तब ही दिया जाएगा जब विकासशील या गरीब देश अपना कार्बन उत्सर्जन घटाएंगे और लक्ष्य प्राप्त करेंगे। विकसित देशों द्वारा दिए गए इन पैसों का इस्तेमाल अक्षय या स्वच्छ ऊर्जा के प्रोजेक्ट लगाने में किया जाएगा।
गौर करने वाली बात यह है कि इस समझौते के दौरान बाकू में मौजूद भारतीय प्रतिनधि ने इसका जम कर विरोध किया। प्रतिनिधि चाँदनी रैना ने इस समझौते को लेकर साफ कहा कि भारत इस समझौते को वर्तमान स्वरूप को स्वीकार नहीं करता है। जितना पैसा जुटाने की बात की गई है, वह काफी कम है और एक मामूली धनराशि है। यह ऐसा समझौता नहीं है जिससे हमारा देश अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक जलवायु एक्शन लिया जा सके।
भारत ने यह समझौता करने के तरीके पर भी सवाल खड़े किए। भारत ने कहा कि सब कुछ पहले ही मैनेज किया जा चुका था और बाकू में ना किसी की सहमति ली गई और ना ही उनकी समस्याएँ सुनी गईं। इसे बजाय जल्दबाजी में समझौता कर दिया गया। भारत को समझौता होने से पहले बयान की अनुमति ना मिलने पर भी रोष जताया। भारत ने कहा कि हमने सभी जिम्मेदार संस्थाओं को इस मामले में सूचित कर दिया था लेकिन हमारी बात नहीं मानी गई।
जलवायु परिवर्तन को लेकर मचे हो-हल्ले के बीच यह बात ध्यान देना जरूरी है कि इसका सबसे अधिक नुकसान विकासशील देशों का ही है। विकासशील देशों ने ही इस समस्या को जन्म दिया है। अपने देशों को औद्योगिक ताकत बनान के लिए अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी समेत तमाम देशों ने दुनिया भर में जंगल काटे, खूब तेल और गैस जलाई। उन्होंने कोयले का भी भरपूर तरीके से इस्तेमाल किया। इसके जरिए उन्होंने अपने नागरिकों का जीवन स्तर बढ़ाया और अब जब उनकी समस्याएँ हल हो चुकी हैं, तब वह दूसरे देशों को ऐसा नहीं करने देना चाहते हैं। अब उन्हें भारत एवं उसके जैसे बाकी विकासशील देशों के कोयले अथवा जीवाश्म ईंधन का उपयोग करने पर तकलीफ हो रही है।
इसके विकल्प के तौर पर ही सौर ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाया जा रहा है। लेकिन सौर ऊर्जा या अन्य वैकल्पिक ऊर्जा का उत्पादन कितना और किस स्तर पर हो पाएगा, अभी नहीं कहा जा सकता। जलवायु परिवर्तन के और भी कारक हैं, जिन पर ध्यान देना होगा। हमें जंगलों को काटकर कालोनियां बनाने का काम भी रोकना होगा। फर्जी आंकड़े दिखाकर हम बच नहीं सकते और न ही हमारी समस्या हल होगी। ठोस कदम ही इसका एकमात्र विकल्प है।
– संजय सक्सेना