Editorial
समस्या की जड़ में हम भी!

वायनाड में भूस्खलन की घटना हो या उत्तराखंड-हिमाचल में बढ़ते भूस्खलन के मामले, कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन के साथ ही इसके पीछे मानव निर्मित कारण भी हैं। वायनाड की घटना ने तो पूरे देश को हिलाकर रख दिया, इसके कारण तीन सौ से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। हो सकता है कि कुछ लोग अभी भी लापता हों। हिमालय क्षेत्र में भी ग्लेशियर पिघलने और पहाड़ दरकने की घटनाओं ने चिंता का माहौल बना दिया है।
यदि हम जलवायु के साथ ही भूगर्भीय परिवर्तनों की बात करें तो हम जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन से भविष्य में चरम मौसम की और भी अधिक घटनाएं होंगी। हमने देश भर में कई क्षेत्रों में रिकॉर्ड तोड़ तापमान देखा है। फिर बारिश से मुसीबतों का मौसम आया। अत्यधिक बारिश और जलवायु-परिवर्तन से उसके संबंध का भी एक स्पष्ट विज्ञान है। अभी भी कई इलाकों में बहुत कम बारिश हुई है तो कुछ क्षेत्रों में कोटा पूरा ही नहीं, उससे अधिक बरसात हो चुकी है। बाढ़ भी आ चुकी है।
जलवायु परिवर्तन के अंतर्गत यही कहा जा रहा है कि जैसे-जैसे समुद्र का तापमान बढ़ेगा, दुनिया में ज्यादा बारिश होगी, और वह अतिवृष्टि के रूप में होगी। इसलिए कम बारिश वाले दिनों में भी ज्यादा बारिश देखने को मिलेगी। विशेषज्ञों का अनुमान है कि भारत में एक साल के लगभग 8700 घंटों में से कुछ सौ घंटे बारिश होती है। लेकिन जुलाई 2024 में भारतीय मेट्रोलॉजी विभाग यानि आईएमडी के अनुसार ‘बहुत भारी बारिश’ के रूप में वर्गीकृत की गई घटनाएं पिछले पांच सालों में दोगुनी से भी ज्यादा हो गई हैं।
इसके आंकड़े बताते हैं कि जुलाई में ऐसी घटनाएं 2020 में 90 थीं, जो 2024 में बढक़र 193 हो गई हैं। यूपी के बरेली का डेटा संदर्भ के तौर पर लिया जा रहा है, जिसमें बताया गया कि 8 जुलाई को इस जिले में 24 घंटे में 460 मिमी बारिश हुई। बरेली में हर साल औसतन 1100 से 1200 मिमी बारिश होती है। तो 24 घंटे में ही इसकी आधी बारिश हो गई। अध्ययन में पाया गया कि उत्तराखंड के चम्पावत जिले का भी यही हाल था। 8 जुलाई को ही 24 घंटे में 430 मिमी बारिश हुई। अगर आप 25 जुलाई को पुणे जिले को लें तो 24 घंटे में 560 मिलीमीटर बारिश हुई। यह इस जिले में साल भर में होने वाली बारिश की आधी से भी ज्यादा है।
हमारे सिर के ताज हिमालय की बात करें तो यह दुनिया की सबसे युवा पर्वतमाला है। और यह भूस्खलन और बादल फटने की घटनाओं के लिए एक जोखिम भरा स्थल है, साथ ही यह अत्यधिक भूकंपीय-क्षेत्र भी है। यह नाजुक है। फिर भी हम हिमालयीन क्षेत्र में कुछ इस अंदाज में निर्माण करते हैं मानो दिल्ली के किसी भीड़भाड़ वाले इलाके में पार्किंग स्थल बना रहे हों।
सही कहा जाए तो हमारे पास हिमालयन क्षेत्र में बसे कस्बों के लिए कोई मास्टर प्लान नहीं है। कई काम तो एकदम बेतुके ही हो रहे हैं। बाढ़ के मैदानों पर निर्माण किया जा रहा है। और वास्तव में, हम नदियों के ऊपर भी निर्माण करने लगे हैं। हम पहाड़ों को नष्ट कर रहे हैं। और पेड़ों को तो ऐसे काट रहे हैं, जैसे कल इसका अवसर न मिलेगा। वहां के ईकोसिस्टम को हम ही असंतुलित करने में लगे हुए हैं। यह सोचे बिना कि विकास के नाम पर यह असंतुलन ही हमें विनाश की तरफ ले जा रहा है।
हिमालय-क्षेत्र में विकास करना चाहिए, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन बिना सोचे-समझे विकास-परियोजनाओं पर काम करने का भी कोई औचित्य नहीं। हिमालय में चलाई जा रही जलविद्युत परियोजनाएं इसकी बानगी हैं। हम इन परियोजनाओं के खिलाफ नहीं हैं, होना भी नहीं चाहिए। आखिर, जलविद्युत एक महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत है। यह एक अक्षय और स्वच्छ ऊर्जा स्रोत भी है। परंतु सवाल यह उठता है कि हिमालय की संवेदनशीलता को कौन ध्यान में रखेेगा?
2013 में परियोजनाओं की जांच के लिए उच्चस्तरीय समिति का गठन किया गया था। इंजीनियरों ने बताया कि उनके पास 9000 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए गंगा पर 70 पनबिजली-परियोजनाएं बनाने का प्रस्ताव है। इस योजना के अनुसार शक्तिशाली गंगा नदी का 80 प्रतिशत हिस्सा ‘संशोधित’ किया जाता और नदी में लीन पीरियड में उसमें 10 प्रतिशत से भी कम पानी बचता। तब वह एक नाले से ज्यादा नहीं रह जाती। पर्यावरणविदों के साथ ही इस जांच समिति के कुछ सदस्यों ने भी इस पर आपत्ति जताई। इसका विकल्प सुझाया गया कि हमें नदी के प्रवाह के अनुरूप परियोजनाओं को फिर से डिजाइन करना चाहिए, ताकि जिस मौसम में नदी में अधिक पानी हो, तब उससे अधिक बिजली पैदा हो और जब पानी कम हो, तो कम। यानि इन परियोजनाओं को इस तरह से तैयार किया जाना चाहिए कि नदी में हर समय 30 से 50 प्रतिशत प्रवाह बना रहे। इसके लिए परियोजनाओं में संशोधन करना होगा, नदी के प्रवाह में तो हम कर नहीं सकते। लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया और इसके चलते कई समस्याएं सामने आ ही रही हैं।
2013 में कस्तूरीरंगन कमेटी ने केरल के पश्चिमी घाट को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र का हिस्सा माना और समिति ने सिफारिश की थी कि इन क्षेत्रों में खनन और उत्खनन जैसी गतिविधियों पर तत्काल प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए। लेकिन केरल सरकार ने इसे नहीं माना और परिणामस्वरूप अत्यधिक बारिश में वहां की कुछ पहाडय़िां ढह गईं और बड़े पैमाने पर जान-माल की हानि हुई।
इसलिए ध्यान रहे, देश भर में हम आज जो भी प्राकृतिक आपदाएं देख रहे हैं, वे केवल प्राकृतिक ही नहीं मानव निर्मित भी हैं। उत्तराखंड को लेकर आए दिन पर्यावरणविद लेखों के माध्यम से यहां की संवेदनशीलता को सार्वजनिक करते हैं। परियोजनाओं में संशोधन का आग्रह करते हैं, लेकिन उनकी बात अनसुनी ही कर दी जाती है। हिमाचल और उत्तराखंड में इस साल जितनी भूस्खलन और पहाड़ दरकने की घटनाएं सामने आईं और आ रही हैं, उतनी पहले नहीं हुईं। लेकिन हम पर्यटन के नाम पर वहां असंतुलित भीड़ एकत्र कर रहे हैं। धार्मिक यात्राओं में भी वहां की परिस्थितियों और पहाड़ों के कच्चे होने का ध्यान नहीं रखा जा रहा है। जो लोग इन पर नियंत्रण करने की बात करते हैं, एक वर्ग उन्हें धर्मविरोधी मानसिकता का बताने लगते हैं।
आखिर, हम चाहते क्या हैं? चाहे अंधाधुंघ विकास परियोजनाओं का असंतुलित क्रियान्वयन हो, या पर्यटन के नाम पर पहाड़ी इलाकों का शोषण, दोनों ही अनुचित हैं। हिमालयीन क्षेत्र के साथ ही देश के अन्य तमाम हिस्सों के पर्वतीय इलाकों में हम लगातार पहाड़ों को काट रहे हैं। जंगल उजाड़ रहे हैं। यह हमारे पारिस्थितिकी तंत्र को बिगाड़ रहा है। जलवायु असंतुलन और परिवर्तन के पीछे यह भी बहुत बड़ा कारण है। हम अपनी जिद पर अड़े रहें, प्रकृति की अपनी मजबूरियां हैं। लेकिन नुकसान तो अंतत: हमें ही होना है। असंतुलन के साथ अपने आप को अनुकूल बनाने का अर्थ प्रकृति से छेड़छाड़ करना कतई नहीं होता। हम ध्यान नहीं रखेंगे तो प्रकृति हमारा ध्यान नहीं रखेगी।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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