Editorial: जख्म बहुत गहरे हैं,
उम्मीदों पर पहरे हैं…
उन्नीस सौ चौरासी की वो दो दिसंबर की रात..। बहुत कुछ लिखा जा चुका है, बहुत कुछ कहा जा चुका है। तमाम सवाल आज भी बाकी हैं। बाकी हैं, वो उम्मीदें, जिनके पूरे होने की भी उम्मीद नहीं है। बाकी है, वो रासायनिक कचरा, जो आज भी हवा से लेकर पानी में जहर घोल रहा है। बाकी हैं लाखों लोगों के गहरे जख्म और बाकी हैं, उस दौरान और उसके बाद पैदा हुए लाखों बच्चों में आई आनुवंशिक बीमारियां, दिव्यांगता और भी बहुत कुछ..।
भोपाल गैस त्रासदी के 40 बरस आज पूरे हो गए। आंखों से आज तक ओझल नहीं हो पाती वो तस्वीर। जख्मों पर मरहम तो लगाने का प्रयास किया गया, पर शायद किसी भी सरकार ने ईमानदार प्रयास तो नहीं किया। यह आरोप नहीं है, ये वो सच्चाई है, जो आज भी हमें गैस पीडि़त इलाकों में दिखाई दे जाती है। जो आज भी गैस पीडि़त बुजुर्गों से लेकर दूसरी और तीसरी पीढ़ी में भी दिखाई दे रही है।
गैस काण्ड के बाद क्या कुछ नहीं हुआ। तमाम संगठन बने, कुछ ने नेतागिरी की, दुकान चलाई और कुछ ने वाकई काम भी किया। जिन लोगों ने काम किया, काम करते हुए चले भी गये, उनके हालात भी पीडि़तों जैसे ही रहे। और सरकारों की बात करें तो तमाम सरकारें आईं, गैस पीडि़तों के लिये तमाम योजनाएं बनाईं, कुछ लागू भी हुईं और अधिकांश योजनाओं का लाभ गैर गैस पीडि़तों को भी मिला। कह सकते हैं, कमीशनबाजी से लेकर भ्रष्टाचार और फर्जीवाड़ा भी जमकर हुआ। लाखों फर्जी गैस पीडि़तों को मुआवजा भी मिला और असली बच गये, मर गये तड़प-तड़प कर। सबसे बड़ी विडम्बना तो ये रही कि इस घटना के जिम्मेदारों को सजा नहीं मिल पाई।
मुआवजे और राहत का जो पैसा आया, वही खर्च नहीं हो पाया और सरकारों ने वाहवाही लूट ली। विडम्बना ही तो है कि जिस यूनियन कार्बाइड से हत्यारी गैस निकली, इतने वर्ष बाद भी जहरीला कचरा उस कारखाने के परिसर में दफन है। इसके कारण आधे शहर का भूजल प्रदूषित होने की बात सत्यापित हो चुकी है। वर्ष 2018 में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ टाक्सिकोलाजी रिसर्च लखनऊ की रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आ चुका है। रिपोर्ट के अनुसार यूनियन कार्बाइड परिसर के आसपास की 42 बस्तियों के भूजल में हेवी मेटल, आर्गनो क्लोरीन पाया गया था, जो कैंसर और किडनी की बीमारी के लिए जिम्मेदार बने। दावा यह भी है कि रैपिड किट से उन्होंने इनके अतिरिक्त कारखाने की साढ़े तीन किमी की परिधि में आने वाली 29 अन्य कालोनियों में भी जांच की तो आर्गनो क्लोरीन मिला है, पर कितना मात्रा में है इसकी जांच बड़े स्तर पर नहीं की गई।
सबको मालूम है कि त्रासदी के पहले परिसर में ही गड्ढे बनाकर जहरीला रासायनिक कचरा दबा दिया जाता था। इसके अतिरिक्त परिसर में बनाए गए तीन छोटे तालाबों में भी पाइप लाइन के माध्यम जहरीला अपशिष्ट पहुंचाया जाता था।
इस कचरे की कोई बात ही नहीं हो रही। कारखाने में रखे कचरे को नष्ट करने के लिए 126 करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं। बमुश्किल इसे पीथमपुर में जलाये जाने का फैसला हुआ, लेकिन अभी तक जलाया नहीं गया है।
और, 40 साल बाद भी यूनियन कार्बाइड कारखाने के आसपास की कॉलोनियों के लाखों लोग प्रदूषित पानी पी रहे हैं। यहां का भूजल बहुत खराब है, बोरिंग का पानी पीने लायक नहीं है। अटल अयूब नगर, न्यू आरिफ नगर, गरीब नगर सहित 8 बस्तियों में बोरवेल के पानी का टीडीएस लेवल तय मानकों से दोगुना खराब है। मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, इन क्षेत्रों से 22 अप्रैल 2024 को बोरवेल के पानी के सैंपल लिए गए थे। लैब जांच में सभी जगह पानी में टीडीएस, टोटल हार्डनेस व रंग तय मानकों से अधिक पाया गया। चीफ साइंटिस्ट ने 19 पैरामीटर्स पर जांच की थी। यह पाया गया कि यूनियन कार्बाइड कारखाने के 3 किमी दायरे में स्थित कैंची छोला के भूजल में जनवरी 2022 की अपेक्षा अप्रैल 2024 में नाइट्रेट की मात्रा बढ़ी है। जनवरी 2022 में यहां बोरवेल के पानी में नाइट्रेट 36.5 एमपी/लीटर था। यह अप्रैल 2024 में 51.92 एमपी/लीटर निकला। इससे गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल कैंसर, ब्लैडर कैंसर का खतरा बढ़ सकता है। सामान्यत: यह 45 एमपी होना चाहिए। बड़ी संख्या में लोग यही पानी पीने के लिए मजबूर हैं।
और, पुनर्वास की बात करें तो गैस पीडि़तों के बजाय दलालों और भ्रष्ट अधिकारियों-कर्मचारियों के साथ ही कई नेताओं का भी पुनर्वास हो गया। करोड़पति बन गये, जबकि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गैस पीडि़तों के पुनर्वास के लिए वर्ष 2010 में 272 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए थे, इसमें भी 129 करोड़ रुपये आज तक खर्च नहीं हो पाए हैं। इसमें 75 प्रतिशत राशि केंद्र व 25 प्रतिशत राज्य सरकार की थी। गैस राहत एवं पुनर्वास विभाग आज तक इस राशि को खर्च करने की योजना ही नहीं बना पाया है। आर्थिक पुनर्वास के लिए 104 करोड़ रुपये मिले थे। इसमें 18 करोड़ रुपये स्वरोजगार प्रशिक्षण पर खर्च हुए बाकी राशि बची है। सामाजिक पुनर्वास के लिए 40 करोड़ रुपये मिले थे, जिसमें गैस पीडि़तों की विधवाओं के लिए पेंशन का भी प्रविधान है। 4399 महिलाओं को पेंशन मिल रही हैं। वर्ष 2011 से यह राशि एक हजार है जिसे बढ़ाया नहीं गया है।
कुल मिलाकर इसी नतीजे पर पहुंचते हैं कि हम गैस त्रासदी बरसी तो मनाते हैं, लेकिन न तो गैस पीडि़तों को उनका हक दिला पाये, न सही पुनर्वास कर पाये और न ही हमने उससे कोई सबक लिया। सरकारी छुट्टी करके इतिश्री कर ली गई।
– संजय सक्सेना