Vishleshan

Editorial
Supreme court बनाम ED… गिरफ्तारी का पर्याप्त आधार तो हो! 

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दिल्ली शराब नीति मामले में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सुप्रीम कोर्ट ने ने ईडी की गिरफ्तारी मामले में केजरीवाल को अंतरिम जमानत दी है। इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम अर्थात पीएमएलए 2002 के तहत ईडी द्वारा गिरफ्तारी करने के नियमों को सख्त कर दिया है। कोर्ट का कहना है कि गिरफ्तारी मनमाने ढंग से या अधिकारियों की इच्छा के आधार पर नहीं की जा सकती। यह कानून द्वारा निर्धारित मापदंडों को पूरा करने वाले विश्वास करने के वैध कारणों के आधार पर की जानी चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने 2022 के विजय मदनलाल चौधरी बनाम भारत संघ मामले में दिए गए ऐतिहासिक फैसले के बाद ईडी की लगभग सभी शक्तियों को सही ठहराया था, यह पहला बड़ा मामला है जहां अदालत ने केंद्रीय एजेंसी की शक्तियों को सीमित कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट भले ही यह यह तय नहीं कर पाया कि कानूनी रूप से गिरफ्तारी की जरूरत कब होती है, लेकिन इस फैसले ने ईडी द्वारा पीएमएलए के तहत दी गई व्यापक शक्तियों के इस्तेमाल पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
भ्रष्टाचार के केस में जिस पीएमएलए की धारा 19 के तहत गिरफ्तारी होती है इसके मुताबिक कोई ईडी अधिकारी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है, अगर उसके पास मौजूद सामग्री के आधार पर उसे यह विश्वास करने का कारण है। और यह कारण लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिए कि कोई व्यक्ति इस अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध का दोषी है। आसान शब्दों में कहें तो अगर ईडी को किसी व्यक्ति के खिलाफ ऐसे सबूत मिलते हैं, जिससे उस पर भ्रष्टाचार के आरोप साबित होते हों, तो वो पीएमएलए की धारा 19 के तहत उसे गिरफ्तार कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने 66 पृष्ठों के फैसले में, इस प्रावधान में इस्तेमाल किए गए बयानों की ईडी द्वारा की गई व्यापक व्याख्या पर संदेह व्यक्त किया है। बयानों पर विश्वास करने का कारण ईडी द्वारा काफी हद तक उनका अपना नजरिया माना गया है। 2022 के फैसले में भी ईडी ने इस प्रावधान का बचाव किया था, जिसे अदालत ने मंजूरी दे दी थी, इस आधार पर कि गिरफ्तारी का फैसला कोई उच्च पद पर बैठा अधिकारी करता है। अदालत ने कहा है कि ओपिनियन की सब्जेक्टविटी बिना किसी स्पष्टीकरण के निर्दोष करने वाली सामग्री को नजरअंदाज करने का पूर्ण अधिकार नहीं है। ऐसी स्थिति में, अधिकारी कानून में एक गलती करता है जो फैसले लेने की प्रक्रिया की जड़ तक जाती है। कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रवर्तन विभाग ने हमारा ध्यान पीएमएलए अधिनियम की धारा 19(1) में पास मौजूद साक्ष्य के बजाय मौजूद सामग्री शब्दावली के इस्तेमाल की ओर खींचा है। हालांकि यह शब्दों के लिहाज से सही है, लेकिन यह तर्क इस आवश्यकता को नजरअंदाज कर देता है कि नामित अधिकारी को सामग्री के आधार पर यह राय बनानी चाहिए कि गिरफ्तार किया गया व्यक्ति पीएमएल अधिनियम के तहत अपराध का दोषी है। अपराध अदालत के सामने पेश किए जाने वाले सबूतों के आधार पर ही तय किया जा सकता है।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 19(1) के तहत गिरफ्तारी करने की शक्ति जांच के उद्देश्य से नहीं है। गिरफ्तारी रुक सकती है और रुकनी भी चाहिए, और पीएमएल अधिनियम की धारा 19(1) के तहत शक्ति का प्रयोग केवल तभी किया जा सकता है, जब नामित अधिकारी के पास मौजूद सामग्री उन्हें यह राय बनाने में सक्षम बनाती है कि गिरफ्तार किया गया व्यक्ति दोषी है, और यह राय लिखित रूप में कारणों को दर्ज करके करनी चाहिए। अदालत ने इस बात को रेखांकित किया कि चूंकि पीएमएलए के तहत जमानत की शर्तें सख्त हैं, इसलिए गिरफ्तारी की शक्ति सख्त होनी चाहिए।
अदालत ने कहा कि धारा 19(1) की भाषा स्पष्ट है, और गिरफ्तारी के खिलाफ जांच लंबित रहने के दौरान कड़े सुरक्षा उपायों को प्रदान करने के लिए विधायी इरादे को विफल करने के लिए इसकी अवहेलना नहीं की जानी चाहिए। आरोप तय करना और आरोपी को मुकदमे पर खड़ा करना गिरफ्तारी की शक्ति के समान नहीं माना जा सकता है। जमानत पर रिहा होने पर भी व्यक्ति को आरोप और मुकदमे का सामना करना पड़ सकता है।
कहीं न कहीं सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी को अधिकारों के दुरुपयोग रोकने की दिशा में देखा जा सकता है। विपक्षी दल लंबे समय से जांच एजेंसियों के ुदुरुपयोग के आरोप सत्तापक्ष पर लगाते आ रहे हैं। कई मामलों में बिना साक्ष्य के ही गिरफ्तारियां की गई हैं, इनमें जांच एजेंसियों के अधिकार असीमित होने का ही आधार है। लेकिन न्यायालय जब ये बात कहता है कि पर्याप्त साक्ष्य होने चाहिए, तो जांच एजेंसियों को पहले साक्ष्य जुटाने ही चाहिए। केवल यह कह देने भर से काम नहीं चलेगा कि उनके पास पर्याप्त साक्ष्य हैं। ऐसे कई मामलों में गिरफ्तारी तो कर ली जाती है, लेकिन बाद में पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में आरोपी बरी हो जाता है। ऐसे में यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि आरोपी वास्तव में अपराधी था या नहीं। कुल मिलाकर जांच एजेंसियों की साख का सवाल भी है, इसलिए साख बचाए रखने के प्रयास भी करने होंगे।
– संजय सक्सेना

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