Editorial: सडक़ों के गड्ढे बनाम नोटों की गड्डियां…

इसरो को चांद पर पहुंचने के लिए भले ही बहुत मशक्कत करनी पड़ी हो, लेकिन हम हृदय प्रदेश की राजधानी के वाशिंदे तो चांद पर बरसों से रह रहे हैं। हमारा स्मार्ट शहर चांद से कतई कम नहीं है। बारिश तो बहाना है। हमारे लोक निर्माण से लेकर और अन्य विभागों और नगर निगम का भ्रष्टाचार, कमीशन का खुले खेल के चलते नई सडक़ बनते ही हम कुछ दिन बाद चांद वाले गड्ढों की प्रतिकृति यहां देखने लगते हैं। और जिम्मेदार अपनी गाडिय़ों के काले-गोरे, जैसे भी कांच हों, चढ़ाकर निकल लेते हैं। आखिर उनके पास पहुंचने वाली फाइलों पर इन गड्ढों के बराबर का वजन भी तो पहुंचता है।
हर साल की तरह इस बार भी मानसून के बाद भोपाल सहित पूरे प्रदेश की सडक़ों पर गड्ढे दिखाई दे रहे हैं। लेकिन मजाल है कि कोई एजेंसी या सरकार में बैठे जिम्मेदार तकनीकी खोट से लेकर भ्रष्टाचार की बात करें। सच तो यह है कि घटिया निर्माण और बारिश के पानी की उचित निकासी न होने से सडक़ों की स्थिति खराब हो जाती है। जिन अफसरों पर गड्ढे भरने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने ही गड्ढों को भरने की गलत रिपोर्ट पेश की। इस धोखाधड़ी का खुलासा तब हुआ जब पीडब्ल्यूडी के अधिकारियों ने गड्ढों की क्रॉस चेकिंग कराई।
यह धोखाधड़ी पहली बार नहीं हुई। ये अफसर आदतन हैं। ये वो विभाग है, जहां अदालत के आदेशों के बाद भी अफसरों पर कार्रवाई नहीं होती। भ्रष्ट अधिकारियों की पूरी फौज यहां पलती है, फलती और फूलती है, जिसमें करोड़पति, सिफारिशी ठेकेदारों की नई पीढ़ी तैयार हुई है। पीडब्ल्यूडी के 10 संभागों के अधीक्षण यंत्रियों (एसई) द्वारा 10,645 किमी लंबी सडक़ों की औचक जांच की गई, जिसमें 1362 गड्ढे पाए गए। इसके साथ ही, 57 किमी सडक़ों की डामर की ऊपरी परत क्षतिग्रस्त मिली। इसके अलावा 8.80 किमी सडक़ें बारिश के पानी की निकासी की कमी के कारण खराब हो गईं।
गुना के अधीक्षण यंत्री व्हीके झा ने भोपाल परिक्षेत्र का निरीक्षण किया। भोपाल संभाग के तहत तीन भाग- भोपाल-1, भोपाल-2, और नया भोपाल आते हैं। 706 किमी लंबी सडक़ों की जांच में कुल 404 गड्ढे मिले। भोपाल-1 की 43 सडक़ों के 54 किमी हिस्से में 52 गड्ढे पाए गए। वहीं, भोपाल-2 की 100 सडक़ों के 549.39 किमी हिस्से में 209 गड्ढे मिले। नए भोपाल संभाग की 46 सडक़ों के 103 किमी हिस्से में 143 गड्ढे दर्ज किए गए। सरकार ने गुना, शिवपुरी, और श्योपुर के ईई द्वारा दी गई गलत रिपोर्ट की जांच के आदेश दिए थे। इस आदेश के तहत, सडक़ों से गड्ढे मुक्त करने की रिपोर्ट को जांचने के लिए एसई ने खुद मौके पर जाकर गड्ढों की गणना की। कुछ सडक़ों का पुनर्निर्माण होना था, लेकिन ईई ने इस जानकारी को लोकपथ एप से अपडेट नहीं किया था, जिससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई। कुछ सडक़ों में गड्ढे इसीलिए मिले क्योंकि वे पहले से खराब थीं और पुनर्निर्माण की जरूरत थी। अगर सही जानकारी पहले दी जाती, तो दोबारा उन सडक़ों का दौरा करने की आवश्यकता नहीं होती। पटेल ने यह भी बताया कि बीच में उनकी ड्यूटी राष्ट्रपति के कार्यक्रम में लगाई गई थी, इसलिए कुछ दिनों के लिए उनकी जगह दूसरे अफसर ने जांच की।
खैर, ये सडक़ों पर गड्ढे गिन रहे हैं। भाई गड्ढे तो विभाग में हैं। मुख्यालय से मंत्रालय तक हैं। फाइलों में गड्ढे हैं। अधिकारियों को चुनौती है, बाकी शहरों की तो छोड़ो, राजधानी की एक भी सडक़ तकनीकी रूप से पूरी सही साबित करके बता दें। बुलाएं आईआईटी रुडक़ी के एक्सपर्ट। भोपाल के एक्सपर्ट तो बहुत सस्ते में बिक जाते हैं, जो नहीं बिकते, उनकी रिपोर्ट फाइलों में पड़ी पड़ी सड़ जाती है।
स्मार्ट सिटी के नाम पर करोड़ों की सडक़ें भ्रष्टाचार की खुली कहानी कह रही  हैं, अफसर बेशर्मी से कह देते हैं कि मरम्मत की जिम्मेदारी बनाने वाली कंपनी की है, वही मरम्मत करेगी। तो क्या थेगड़े वाली सडक़ बनाने के लिए कंपनी को करोड़ों का ठेका दिया था। सडक़ पर पानी बहने से गड्ढे होते हैं, तो इसकी स्थिति क्यों बनती है? कभी किसी अफसर ने इस पर गौर किया। कभी गौर किया कि सडक़ पर ढलान किस तरफ है? आधा किलोमीटर में एक टुकड़ा अच्छा और एक खराब क्यों बनता है? क्यों सडक़ का आधा हिस्सा जल्दी खराब होता है? पैसा तो अच्छी सडक़ के हिसाब से ही दिया जाता है।
सवाल बहुत सारे हैं। लेकिन शर्म तो उन इंजीनियरों को आना चाहिए, जो ऐसी सडक़ों की डीपीआर बनाते हैं। जो इनका सुपरविजन करते हैं। जो फाइल पर रखे वजन के आधार पर हस्ताक्षर करते हैं। क्या इन अधिकारियों की डिग्री नहीं छीन ली जानी चाहिए? इन्हें शर्म नहीं आती है। इन्हें केवल कमीशन के परसेंटेज का हिसाब आता है, सडक़ों के गड्ढे गिनने के बजाय नोटों की गड्डियां गिनना आता है। ऊपर कितना देना है, नीचे कितना खर्च होना है, इसका हिसाब आता है। गड्ढे कौन गिने? और क्यों गिने? जनता है, परेशान होती है तो होती रहे। छोटी गाडिय़ां ही तो खराब होती हैं, करोड़ों वाली गाडिय़ों पर जब फर्क पडऩे लगता है, तब तो सडक़ें सुधर ही जाती हैं।
खैर..। हरि अनंत हरि कथा अनंता। ये भ्रष्टाचार की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। हम न तो अपने नागरिक वाले कर्तव्य ठीक से जानते हैं, न अपने अधिकार। वोट तो हम भी बेचते ही हैं। भुगतना तो पड़ेगा।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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