Editorial: इच्छा मृत्यु पर फिर से बहस

भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से इच्छा मृत्यु को लेकर जो गाइडलाइंस का प्रस्ताव जारी किया गया है, उससे इस पर जारी बहस और तेज हो गई है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी यह कहते हुए आपत्ति की है कि लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाए जाने का फैसला करने की जिम्मेदारी डॉक्टरों पर डाल दी गई है, जबकि यह ठीक नहीं है। इससे उन पर दबाव और अधिक बढ़ जाएगा।
असल में इच्छा मृत्यु के भावनात्मक, कानूनी और चिकित्सकीय पहलू इससे जुड़े किसी भी मामले में फैसला लेना कठिन बना देते हैं। लेकिन फिर भी फैसला तो करना ही होता है। सुप्रीम कोर्ट भी 2018 में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की कुछ शर्तों के साथ इजाजत दे चुका है। ऐसे में फैसले की प्रक्रिया की परिभाषा और अधिक  स्पष्ट करनी होगी, इससे इस संबंध में निर्णय लेना और उसे लागू करना उतना ही आसान होगा। शायद सरकार की ओर से गाइडलाइंस जारी करने की पहल के पीछे यही सोच है।
गाइडलाइंस के मसौदे को देखें तो इसमें यह प्रयास स्पष्ट नजर आता है कि फैसला कई स्तरों पर परखे जाने के बाद ही अमल में आए। इसके अनुसार लाइफ सपोर्ट सिस्टम की जरूरत और उसकी उपयोगिता पर फैसला करने वाले प्राइमरी मेडिकल बोर्ड में प्राइमरी फिजीशियन के अलावा कम से कम दो ऐसे विशेषज्ञ होने चाहिए, जिनके पास कम से कम 5 साल का अनुभव होगा। इसके बाद सेकंडरी मेडिकल बोर्ड इस फैसले की समीक्षा करेगा, जिसमें सीएमएचओ द्वारा मनोनीत एक रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर के अलावा दो एक्सपर्ट होंगे। इसके साथ ही पेशेंट के परिवार की सहमति भी जरूरी होगी।
सामान्य तौर पर देखा जाए तो मरीज के केस की बारीकी के आधार पर निष्कर्ष तो आज भी डॉक्टर ही निकालते है, लेकिन अभी ये होता है कि डाक्टर मरीज या परिजनों को पूरी स्थिति समझाते हैं और फिर पेशंट या परिवार फैसला करता है। फैसला करने से डॉक्टरों की हिचक समझी जा सकती है। दरअसल, चिकित्सक का काम तो मरीजों को बचाने का होता है। सैद्धांतिक रूप से डॉक्टर आखिरी पल तक मरीज को बचाने का प्रयास करते हैं, भले ही कुछ मामलों में यह कोशिश नाकाम हो जाए। ऐसे में इलाज के दौरान किसी खास बिंदु पर उन प्रयासों से हाथ खींचने का फैसला स्वाभाविक ही कई डॉक्टरों को अपने पेशे से अन्याय लग सकता है। हालांकि अब डाक्टरी का पेशा केवल पैसे कमाने तक सीमित होता जा रहा है, लेकिन अभी भी कई लोग ऐसे हैं, जो अपने पेशे के साथ पूरा न्याय कर रहे हैं।
मगर यहां कुछ और पहलू भी हैं। सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि जीवन की गरिमा के साथ ही मौत की गरिमा का सवाल भी जुड़ा है। फिर संसाधनों के सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल की भी बात आती है। अगर किसी मरीज के ठीक होने की संभावना नहीं रह गई है तो उन मेडिकल संसाधनों का उपयोग ऐसे मरीज को बचाने में करना बेहतर है, जिसे बचाया जा सकता है। बहुत कम मामलों में इच्छा मृत्यु की इजाजत होती है। नहीं तो कई मरीजों को हफ्तों तक लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर रखा जाता है, भले ही आखिर में उनकी मौत हो जाती है।
फिलहाल तो इच्छा मृत्यु को लेकर सरकार ने गाइडलाइंस के इस प्रस्ताव पर 20 अक्टूबर तक सुझाव मांगे हैं। क्या सुझाव आते हैं और उन पर सरकार क्या फैसला लेती है। फिर गाइडलाइन कैसी बनाई जाती है, यह भविष्य की बात है। अभी तो यही कहा जा सकता है कि एक व्यावहारिक गाइडलाइन बनाई जाए, जिससे कि परिवार या मरीज स्वयं की आपत्ति भी न हो और डाक्टरों के प्रति लोगों की नाराजगी भी न हो। उनके खिलाफ लोग अदालत तक चले जाते हैं, नई गाइडलाइन में इस पर भी विचार होना चाहिए।
– संजय सक्सेना

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