Editorial: फडणवीस की वापसी के मायने

महाराष्ट्र में वो नहीं हुआ, जो मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हुआ था। सवाल तो चर्चाओं में होना स्वाभाविक हैं, क्या वास्तव में पार्टी नेतृत्व महाराष्ट्र में भी प्रयोग करना चाह रहे थे और नहीं कर पाए? क्या नेतृत्व को अपना फैसला वापस लेना पड़ा? सच परदे में रहेगा या बाहर आएगा, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेेकिन महाराष्ट्र में फडणवीस की वापसी के बहुत सारे मायने निकाले जा रहे हैं।
देखा जाए तो भाजपा ने एक तरह से महाराष्ट्र में फडणवीस के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा था। यही नहीं, पूर्व पार्टी अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी तक को हाशिए पर भेज दिया गया। नारा चला हो या अन्य प्रकार का मैनेजमेंट, भाजपा को महाराष्ट्र में प्रचंड बहुमत मिला और इसके बावजूद फडणवीस को मुख्यमंत्री पद हासिल करने के लिए खासी जद्दोजहद करनी पड़ी। भाजपा के प्रदर्शन में फडणवीस खुद भी अपने योगदान का दावा कर रहे हैं। वे चुनाव-प्रचार अभियान के दौरान पार्टी का मुख्य चेहरा थे और उन्होंने राज्य के सभी छह क्षेत्रों में 64 रैलियां कीं।
इसके साथ ही स्वयंसेवक संघ से उन्हें अटूट समर्थन भी मिला। संघ की तरफ से तो भाजपा अध्यक्ष के लिए भी फडणवीस के लिए सहमति थी।

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मुख्यमंत्री के रूप में नाम तय होने के बाद फडणवीस ने सबसे पहले संघ मुख्यालय में ही फोन लगाया। संघ इस बात पर अड़ा हुआ था कि भाजपा को कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा रखने के लिए इस बार मुख्यमंत्री पद के लिए किसी लो-प्रोफाइल चेहरे को नहीं चुनना चाहिए और फडणवीस ही इस पद के लिए उसकी पहली पसंद हैं।
माना तो यही जा रहा है कि मोदी-शाह संघ से मिले इस संदेश को नजरअंदाज नहीं कर सके, क्योंकि संघ के असहयोग की कीमत भाजपा को लोकसभा चुनावों में चुकानी पड़ी थी। हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा की किस्मत में अचानक आए बदलाव से यह स्पष्ट था कि संघ ने चुनावों में अपनी पूरी ताकत लगाई। यहां कई तरह के प्रबंधन भी किये गये, जो भाजपा चुनावों में करती है, लेकिन संघ ने कटेंगे-बंटेंगे नारे को बड़ा मुद्दा बनाया और जातिगत समीकरणों को छिन्न-भिन्न कर दिया।
दिलचस्प यह है कि शाह ने पहले दौर की वार्ता के लिए फडणवीस और अजित पवार से मिलने से पहले एकनाथ शिंदे के साथ आमने-सामने की बैठक की थी। और यहीं से समस्याएं शुरू हुईं। शिंदे ने मुख्यमंत्री पद के लिए अपना दावा इस आधार पर पेश किया कि उन्होंने अपने विकास कार्यक्रमों और कल्याणकारी योजनाओं- खास तौर पर महिलाओं में लोकप्रिय लाडक़ी बहिन योजना के साथ महायुति की जीत में बराबर का योगदान दिया है। शिंदे को पता था कि महाराष्ट्र में जिस तरह के आंकड़े सामने आए थे, उनके मद्देनजर उनके पास अपनी दावेदारी को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त साधन नहीं थे।
भाजपा और अजित पवार के पास शिंदे के बिना भी सरकार बनाने के लिए बहुमत था। लेकिन उन्हें दिल्ली के राजनीतिक मूड का अंदाजा था। उन्हें पता था कि मोदी-शाह की जोड़ी महायुति की व्यापक जीत के बाद उसमें एकता बनाए रखने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने को तैयार है और उन्होंने उसी हिसाब से अपना खेल खेला। माना यही जा रहा है कि शिंदे को मनाने में दस दिन लग गए, और यह अवधि फडणवीस को अखरती रही होगी। लेकिन उन्होंने धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की साथ ही अनुशासन का अच्छा उपयोग किया। उन्होंने अपने लिए जोरदार पैरवी भी की, लेकिन चुपचाप।
यह उस पैटर्न से अलग है, जो हाल के वर्षों में मोदी-शाह की जोड़ी द्वारा भाजपा द्वारा जीते गए राज्यों में अपेक्षाकृत अज्ञात नेताओं को मुख्यमंत्री बनाने में दिखाई दिया था। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरह महाराष्ट्र यह प्रयोग नहीं हो सका। और अब फडणवीस, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ के साथ अगली पीढ़ी के नेताओं की उभरती हुई पंक्ति में शामिल हो गए हैं। इसमें हालांकि नितिन गडकरी भी शामिल हैं, लेकिन उन्हें कहीं न कहीं नेतृत्व द्वारा नजरअंदाज करने की रणनीति अपनाई जा रही है।
लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा कमजोर पड़ती दिखाई दे रही थी, लेकिन हरियाणा की जीत के बाद उसके प्रबंधन का डंका फिर से बज गया और अब महाराष्ट्र की जीत ने न केवल भाजपा के मनोबल को आसमान पर पहुंचा दिया है, अपितु विपक्षी गठबंधन कमजोर होता दिखाई देने लगा है। महाराष्ट्र चुनाव में भाजपा का नारा चला या दूसरे प्रबंधन, इस पर चर्चा भले ही हो रही है, आरोप-प्रत्यारोप भी लगाए जा रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि मतदाता भी कहीं न कहीं हार-थक कर सब स्वीकार करने का आदी होता जा रहा है। निश्चित तौर पर विपक्ष को इसके लिए अपनी रणनीति में तो परिवर्तन करना ही होगा, साथ ही सत्तापक्ष के मैनेजमेंट से भी सीख लेनी होगी।
जहां तक भाजपा की बात है, तो फडणवीस की केवल महाराष्ट्र में ही वापसी नहीं हुई है, वह पार्टी की पहली कतार के नेताओं में शुमार हो गए हैं। मोदी-शाह के बाद उनके विकल्प के तौर पर नेताओं की सूची में उनका नाम भी शामिल हो गयाा है।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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