Editorial: मनमोहन का मुद्दा और राजनीति  की विडम्बना

इसे भारतीय राजनीति की विडम्बना ही कहा जाएगा कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दाह संस्कार और उनकी समाधि का मुद्दा एक बड़े राजनीतिक विवाद में बदल गया है। इस मामले ने जहां भारतीय राजनीति में प्रवेश करती संकीर्ण विचारधाराओं को उजागर किया है, अपितु सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच लगातार चल रहे टकराव की सूची और बढ़ा दी है। कांग्रेस इस बात से नाराज है कि पूर्व प्रधानमंत्री के पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार निगमबोध घाट पर करना पड़ा, जबकि अभी तक पूर्व प्रधानमंत्रियों का दिल्ली में राजघाट के पास ही अंतिम संस्कार होता आया है।
असल में मनमोहन सिंह सरकार ने राजघाट के पास संस्कार और समाधि के लिए राष्ट्रीय स्मृति स्थल तय कर दिया था, लेकिन उनका ही अंतिम संस्कार वहां नहीं होने दिया गया। कायदे से ऐसे फैसले  लेने में देरी नहीं होनी चाहिए थी, और न ही परंपरा से अलग कुछ किया जाना चाहिए था। समाधि-स्थल के लिए जगह देने के मामले में सरकार की तत्परता नहीं दिखाई दी। सरकार राजी तो हुई है,  लेकिन बड़े अनमने ढंग से। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मामले में जैसी तत्परता दिखाई गई और जिस तरह का सम्मान दिया गया, वह यहां नदारद दिखाई दिया। यह उचित नहीं लगता।
समाधि बनाने के लिए जगह चुनने के लिए पहले ट्रस्ट बनाना होगा, जिसमें परिवार के सदस्य होने चाहिए। यह एक राष्ट्रीय जिम्मेदारी है, फिर इसे पूरा करने में नौकरशाही की ऐसी बाधा क्यों?
इस पूरे मामले में भाजपा और कांग्रेस के बीच वही तू-तू मैं-मैं हो गई है, जो लगभग हर मुद्दे पर होती रहती है। कुछ विशेष कालखंडों, खासकर आपातकाल को छोड़ दें तो ऐसी असहमति पहले कभी नहीं देखी गई। सम्मान ही सहमति का आधार बनता है, दुखद पहलू यह है कि वह सम्मान भी अब कहीं बचा नहीं दिखाई देता। कह सकते हैं कि सम्मान का भी पार्टी के आधार पर बंटवारा हो गया है।
अभी तो भाजपा यह भी प्रचारित कर रही है कि मनमोहन सिंह का कांग्रेस अपमान करती रही है और अब राजनीतिक लाभ के लिए समाधि का मुद्दा उठा रही है। पीवी नरसिंह राव की मौत के बाद उनकी स्मृतियों के साथ कांग्रेस के कथित अपमानजनक रवैये का आरोप भी लगाया जा रहा है। पार्टी का कहना है कि गांधी परिवार ने अपने से बाहर किसी को सम्मान नहीं दिया। लेकिन, पिछले कुछ मामलों पर नजर डालें तो पता चल जाएगा कि राजघाट के पास ही चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम के स्मृति स्थल हैं। दोनों कांग्रेस और इंदिरा गांधी के घोर विरोध वाली राजनीति से जुड़ गए थे। कांग्रेस सरकारों ने ही उनके स्मृति स्थल दिए थे।
जहां तक पूर्व पीएम नरसिंह राव के अपमान का सवाल है, तो कांग्रेस का कहना है कि उन्हें पूरा सम्मान दिया गया और तेलुगू बिड्डा के रूप में उनकी विदाई के लिए ही अंतिम संस्कार के रूप में हैदराबाद को चुना गया। यह फैसला आंध्र प्रदेश के उस समय के मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी ने पूर्व पीएम के बेटे प्रभाकर राव से मशविरा के बाद लिया था। इसमें कांग्रेस की भूमिका नहीं थी। सही तो यह होता कि राजनीतिक दलों को स्मृतियों की राजनीति को खुले रूप में स्वीकार किया जाए। क्या पीवी नरसिंह राव को भारत रत्न देने और उनका मेमोरियल बनाने के पीछे भाजपा का उद्देश्य राजनीतिक नहीं था? शायद इसलिए कि उनमें गांधी परिवार के एक विरोधी का चेहरा देखा जाता रहा।
असल में स्मृतियों से लोगों की संवेदनाएं किस तरह जुड़ी होती हैं, इसका बड़ा उदाहरण भारत-पाकिस्तान की सीमा पर हुसैनीवाला में देखा जा सकता है, जहां सरदार भगत सिंह व उनके साथियों का स्मारक है। यहीं पर फांसी के बाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का अंतिम संस्कार हुआ था। सतलुज के किनारे बसा यह गांव बंटवारे के बाद पाकिस्तान में चला गया था। भारत के लोग चाहते थे कि यह जगह उनके पास हो। भारत सरकार ने 1961 में एक समझौता किया, जिसके तहत वह गांव हमें मिला और बदले में हमने पाकिस्तान को 12 गांव दिए। उस समय किसकी सरकार थी?
स्मारक बनाने के लिए किसी राष्ट्रीय नीति की जरूरत नहीं होना चाहिए। यह सम्मान और स्मृतियों का मुद्दा है, राजनीति का नहीं। और न ही बहस का होना चाहिए। लोगों की भावनाओं का ख्याल रखा जाए। जहां तक, मनमोहन सिंह की बात है तो उनके बारे में कुछ भी प्रचार रहा हो, परंतु उनकी मौत के बाद मिली प्रतिक्रियाओं में वह आर्थिक सुधारों के महानायक के रूप में उभरे हैं। स्वयं सत्तापक्ष के लोगों ने उनकी प्रशंसा की, उनके योगदान को सराहा है। उनके समाधि स्थल का फैसला लेते समय सरकार को यह बात ध्यान में रखना चाहिए। और अब विवाद को न बढ़ाना चाहिए और न ही बढऩे देना चाहिए।
-संजय सक्सेना 

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