देश में केवल 11 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिनके पास हमारी कुल राष्ट्रीय आमदनी की 90.3 प्रतिशत सम्पत्ति है। आय और सम्पत्ति में इतना अंतर क्यों? क्या इसी के औसत के आधार पर हम अपने आप को विश्व की सबसे तेज उभरती अर्थव्यवस्था कह रहे हैं? और इस महत्वपूर्ण सवाल, देश के बाकी 89 प्रतिशत के हाथ में क्या है? क्या ऐसे आंकड़ों से पता नहीं चलता कि 80 प्रतिशत लोगों को मुफ्त अनाज की जरूरत क्यों है? क्यों हमारे बीपीएल कार्डधारकों की संख्या बढ़ती जा रही है।
यह केवल हमारी नहीं, हमारे देश के असल अर्थशास्त्रियों को चिंता है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था ‘मिडिल इनकम ट्रैप’ में न फंस जाए। इसका मतलब यह है कि भारत की कुल राष्ट्रीय आमदनी यानि जीएनआई की वृद्धि प्रति व्यक्ति 1,136 से 13,845 डॉलर है और इसके यहीं पर रुक जाने का खतरा भी बताया जा रहा है। हाल ही में आये विश्व-बैंक के आंकड़े काफी चौंकाने वाले तो हैं ही, चिंता में डालने वाले भी हैं। विश्व बैंक के अनुसार भारत इस समय निम्न मध्यम आय यानि लोअर मिडिल इन्कम वाले देश की श्रेणी में आता है। उसका जीएनआई 12-13 हजार डॉलर के नजदीक 2033 से 2036 के बीच होने की संभावना बताई जा रही है। हम कह सकते हैं कि कम से कम 9 साल बाद भारत मध्यम आय वाला देश कहलाने के काबिल हो पायेगा।
प्रश्न उठाया जा रहा है कि क्या अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा दिए जाने वाले प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आमदनी के आंकड़े हमारे एक नागरिक की आय का सच्चा अनुमान देते हैं? हम कितने ही दावे करते रहें, सच्चाई यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज से बुरी हालत में है। इसका जो सूचकांक है, उसके हिसाब से उसका स्थान 136वां है।
हाल ही में हुई एक रिसर्च में भारत में आर्थिक विषमता का आकलन किया गया है। इसमें बताया गया है कि यदि 2022-2023 में एक अरब चालीस करोड़ भारतवासियों की आमदनी का पिरामिड बनाएं तो शीर्ष एक प्रतिशत लोग 53 लाख रुपए प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष कमाते हैं। उनके हिस्से में देश की सकल आमदनी का 22.6 प्रतिशत आता है। इसके बाद आने वाले स्तर में दस फीसदी लोग ऐसे हैं, जो 13.5 लाख रुपए कमाते हैं। इन दस प्रतिशत लोगों के हिस्से में भारत की कुल आमदनी का 57.7 फीसदी आ जाता है। ये आंकड़े हमें बताते हैं कि हमारे देश में केवल 11 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिनके हाथ में हमारी औसत आमदनी का 90.3 प्रतिशत है।
इस पिरामिड के मध्य में आने वाले 40 प्रतिशत लोगों की आमदनी प्रति व्यक्ति 1.65 लाख सालाना है। बचे हुए 49 फीसदी लोग इस पिरामिड में सबसे नीचे हैं। वे केवल 71,163 रुपए प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष कमा रहे हैं। इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि देश में मध्यम वर्ग का विभाजन हो चुका है और निम्न मध्यम वर्ग तथा निम्न वर्ग में बड़ी आबादी रहने को मजबूर है।
राजनीतिक पार्टियां और सरकारें मानती हैं कि महिलाओं, बुजुर्गों या बेरोजगारों -किसानों के खातों में नकद डालने सेे वे उनके वोटर बन जाएंगे। और ऐसा हुआ भी है। हो भी रहा है। लाडली बहना और लाडकी बहिना योजनाएं इसका प्रमाण हैं। एक और आंकड़ा विश्लेषण के दौरान सामने आया है। इसे सही मानकर चलें तो हमारे देश के औसतन 98 प्रतिशत परिवार 16,667 रुपए प्रति माह खर्च करने की हैसियत रखते हैं। 90 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनका हर महीने का खर्च केवल 8,334 रुपए है। एक परिवार में औसतन 4.4 सदस्य के हिसाब से एक व्यक्ति 1,894 रुपए प्रति माह और 63.14 रुपए प्रति दिन खर्च करने की क्षमता रखता है। जबकि विश्व-बैंक ने अंतरराष्ट्रीय गरीबी की रेखा 1.9 डॉलर या 133 रुपए प्रति व्यक्ति निर्धारित की है। यानि इस हिसाब से तो भारत की 90 प्रतिशत जनसंख्या बीपीएल यानि गरीबी रेखा के नीचे वाली श्रेणी में ही आती है।
और इसके बाद भी हम दम भरते हैं कि हम दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गये हैं। हम ट्रिलियन इकानामी वाले देश बनने वाले हैं। क्या दस प्रतिशत लोगों की आय के आधार पर ही हम ये दावा कर रहे हैं? क्या बाकी लोगों के लिये हमारे पास केवल राजनीतिक वायदे और लाभार्थी खाते वाले छोटे-छोटे टुकड़े ही बचे हैं? और, क्या ये आर्थिक विषमता आगे जाकर वर्ग संघर्ष का कारण नहीं बनेगी?
कोई नहीं चाहता कि उसके घर में या देश में अशांति हो, लेकिन हम अपनी अर्थव्यवस्था की इमारत जिस नींव पर तानते जा रहे हैं, उसके मिट्टी-गारे में कहीं न कहीं संघर्ष की आशंकाओं का लेप दिखने लगा है। समस्या यह है कि हमारे सरकारी आंकड़े भी हम ईमानदारी से देखने के लिए तैयार नहीं हैं। दूसरे देशों के सर्वेक्षण हों या विश्व बैंक के अनुमान, हम बड़ी आसानी से उन्हें नकार देते हैं। लोगों को यह समझाने में भी सफल हो रहे हैं कि देश को बदनाम किया जा रहा है। जो इस बहकावे में आ रहे हैं, उनमें बड़ी संख्या में नकद वाले लाभार्थी शामिल हैं, जो नोट के बदले वोट देने के आदी हो गये हैं। यही कारण है कि राग दरबारी, राग जयजयवंती की आवाजें अधिक गूंज रही हैं और अर्थशास्त्रियों की चिंता बढ़ रही है।
– संजय सक्सेना