हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम वास्तव में अप्रत्याशित ही कहे जा सकते हैं। हरियाणा जीतकर भाजपा ने न सिर्फ सारे एग्जिट पोल्स को झूठा साबित कर दिया बल्कि तमाम विश्लेषकों के पूर्वानुमान फेल करके अपने विरोधियों को भी चौंका दिया है। वहीं कश्मीर में अवश्य पूर्वानुमान सही साबित हुए हैं। अब जीत कैसे हुई, कहां क्या हुआ और कैसे हुआ, इसका विश्लेषण शुरू हो गया है। वैसे विश्लेषण और समीक्षा की जरूरत नहीं है। किसने क्या किया, यह भी सामने है और किसकी क्या कमजोरी रही, यह भी सामने ही है। अब ये बात और है कि कोई समझे या न समझे, कोई माने या न माने।
शिवसेना सांसद संजय राउत के कथन पर एक नजर डालते हैं। राउत कहते हैं कि दोनों राज्यों यानि हरियाणा और जम्मू कश्मीर की अपनी अहमियत है, लेकिन जम्मू कश्मीर भाजपा के लिए ज्यादा अहम था। वे उस जगह से हार गए, जहां उन्होंने अनुच्छेद 370 हटाया था। विपक्षी गठबंधन हरियाणा में नहीं जीत पाया क्योंकि कांग्रेस को लगा कि वह अपने दम पर जीत सकते हैं और उन्हें सत्ता में किसी सहयोगी की जरूरत नहीं है। कांग्रेस नेता हुड्डा जी को लगा कि वे जीत जाएंगे। अगर उन्होंने समाजवादी पार्टी, आप या अन्य छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन किया होता तो नतीजा कुछ और होता। भाजपा ने जिस तह से चुनाव लड़ा, वह काबिले तारीफ है। भाजपा ने हारी हुई लड़ाई जीती है।
हरियाणा में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की इच्छुक आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि हाल के चुनावों से सबसे बड़ी सीख यह मिली है कि किसी को अति आत्मविश्वासी नहीं होना चाहिए। भाकपा महासचिव डी राजा ने भी कहा कि कांग्रेस को हरियाणा के चुनाव परिणामों पर आत्मचिंतन करने की जरूरत है और उसे महाराष्ट्र तथा झारखंड में आगामी चुनावों में सभी भारतीय ब्लॉक सहयोगियों को साथ लेकर चलना चाहिए।
इन कथनों का उल्लेख इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि आगे और महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव होना हैं। राउत का यह कहना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि भाजपा ने हारा हुआ चुनाव जीता है। यानि उसे हारा चुनाव जीतना आता है और विपक्ष में बैठे लोग जीतते-जीतते हार जाते हैं। कहीं गठबंधन को अनदेखा किया जाता है तो कहीं अंदरूनी कलह दिख जाती है। कांग्रेस की रणनीति शुरू में तो सही दिखी, लेकिन जाटों पर केंद्रित होने के कारण न केवल गुर्जर-यादव वोट उससे दूर हो गए, अपितु अनुसूचित जाति के वोटर भी नाराज हो गए। कहीं न कहीं यह रणनीतिक गलती रही।
और, केजरीवाल यदि अति आत्मविश्वास की बात कर रहे हैं, तो यह केवल कांग्रेस पर लागू नहीं होती, उन पर भी लागू होती है। वो खुद भी तो अति आत्मविश्वास के भरोसे दिल्ली तक में अपना जनाधार खोते दिख रहे हैं। लोकसभा चुनाव के परिणाम भी उन्होंने देखे हैं। अब उन्होंने जिस मुद्दे पर दिल्ली की गद्दी का त्याग किया है, उसे भुनाने की स्थितियां भी नहीं दिख रही हैं। और यदि कांग्रेस की गलती है तो गठबंधन के दूसरे दल भी एकदम सही नहीं हैं। सभी दलों को अपने-अपने गिरेबान में झांकने की आवश्यकता है। अति आत्मविश्वास तो किसी का भी नहीं चलता।
अभी तो यह कहा जा सकता है कि चुनाव परिणाम का संदेश बिल्कुल स्पष्ट है। जैसा कि पहले से माना जा रहा था इन चुनावों के नतीजे न सिर्फ जम्मू-कश्मीर और हरियाणा की जनता और वहां की राजनीति के लिहाज से अहम हैं बल्कि कई महत्वपूर्ण मसलों पर राष्ट्रीय राजनीति का रुख भी इनसे प्रभावित होने वाला है। जम्मू-कश्मीर के लिए ये नतीजे निश्चित रूप से एक नए दौर का संकेत माने जा सकते हैं। दस साल के अंतराल के बाद हुए इन चुनावों में आम लोगों की जैसी भागीदारी रही और जिस तरह से अलगाववादी धारा का हिस्सा रहे लोग भी चुनावी राजनीति की राह अख्तियार करते दिखे, वह न सिर्फ देश बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक पॉजिटिव संदेश है। सबसे बड़ी बात- नैशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला, जिस पर चुनावी मुकाबले में कुछ पीछे रह गई भाजपा ने भी संतोष जताया।
इन चुनावों ने जिस एक बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया, वह है जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा। यह इकलौती ऐसी बड़ी मांग रही, जिस पर भाजपा समेत सभी पक्षों की सहमति है। शांतिपूर्ण चुनाव, उत्साहवर्धक जनभागीदारी और स्पष्ट जनादेश- ये तीनों ही बातें इस पर जोर दे रही हैं कि अब इसमें और देर नहीं करनी चाहिए। जितनी जल्दी संभव हो जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल होना चाहिए।
हरियाणा में दस साल की कथित सत्ता विरोधी लहर को मात देते हुए भाजपा ने जो तीसरी बार सत्ता में वापसी की है, वह कांग्रेस के लिए बड़ा झटका ही है। ‘किसान, जवान और पहलवान’ के नाम पर जो नैरेटिव लंबे समय से चलाया जा रहा था, वह अब अपनी चुनावी उपयोगिता खोता दिख रहा है। कांग्रेस के हार स्वीकार करने से पहले ही जिस तरह से विपक्षी गठबंधन इंडिया के दो घटक दलों – आम आदमी पार्टी और शिवसेना- ने कांग्रेस के रुख को निशाना बनाना शुरू कर दिया, उससे साफ है कि ये नतीजे विपक्षी राजनीति में कांग्रेस की राह मुश्किल बनाने वाले हैं। महाराष्ट्र चुनाव सामने है। ऐसे में कांग्रेस को बहुत समझदारी के साथ फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा।
जहां तक राष्ट्रीय राजनीति में सत्तारूढ़ खेमे की बात है तो वहां भी ये चुनाव भाजपा नेतृत्व के लिए बड़ी राहत लेकर आए हैं। लोकसभा चुनाव में सीटें कम होने के बाद यह चर्चा तेज हो गई थी कि घटक दलों के दबाव में सरकार चलाना आसान नहीं साबित होने वाला। संघ और भाजपा के कुछ नेताओं के असुविधाजनक बयान भी चर्चा बटोर रहे थे। इन सबसे यह परसेप्शन बन रहा था कि पार्टी पर मौजूदा नेतृत्व की पकड़ कमजोर हो रही है। चुनाव नतीजे इन असंतुष्ट गतिविधियों पर अंकुश लगाने का काम कर सकते हैं। देखना होगा कि सत्तापक्ष और विपक्ष अगली रणनीति में क्या बदलाव करती है। भाजपा के अध्यक्ष पद पर होने वाली ताजपोशी भारतीय जनता पार्टी और संघ की आगामी रणनीति का बड़ा संकेत होगी।
– संजय सक्सेना