Vishleshan

Editorial
राज्यों के हित वाला फैसला, लेकिन…

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सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में खनिज रायल्टी को लेकर जो महत्वपूर्ण फैसला दिया है, वह राज्यों की आर्थिक स्थिति को सुधारने में सहायक साबित होगा। असल में न्यायालय ने माइंस एंड मिनरल्स (डिवेलपमेंट एंड रेग्युलेशन) यानी एमएमडीआर एक्ट, 1957 के तहत रॉयल्टी से जुड़े एक अहम मामले में फैसला दिया है कि इसे टैक्स नहीं माना जा सकता। इस फैसले के मुताबिक राज्यों को खनिज और खनिज वाली जमीनों पर केंद्र द्वारा ली जाने वाली रॉयल्टी के अतिरिक्त भी टैक्स लगाने का अधिकार है।
यह मामला केंद्र और राज्यों के अधिकारों से जुड़ा हुआ है और इसमें सुप्रीम कोर्ट ने 1989 में दिए अपनी संविधान पीठ के फैसले को गलत करार दिया है। सात जजों की बेंच ने उस फैसले में खदान और खनिजों के विकास से जुड़े मामलों में टैक्स लगाने का अधिकार केंद्र का बताया था। स्वाभाविक तौर पर पहली नजर में नौ न्यायाधीशों की बेंच के बहुमत से दिए गए इस ताजा फैसले को केंद्र सरकार के लिए झटका बताया जा रहा है। लेकिन इस फैसले के निहितार्थ बहुत दूर तक जाते हैं।
जहां तक राज्य और केंद्र के अधिकारों और उनकी सीमाओं की बात है, तो ताजा निर्णय निश्चित तौर पर कई राज्य सरकारों के लिए बड़ी राहत बन कर आया है। सही बात तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले के कारण अब राज्यों की सरकारों को राजस्व का एक नया स्रोत मिल गया है। इससे एक तरफ तो उनकी आमदनी बढ़ेगी, वहीं दूसरी तरफ नई कल्याणकारी योजनाएं शुरू करने और राज्य के विकास को तेज करने वाले कदम उठाने के मामले में केंद्र पर निर्भरता कम हो जाएगी। विशेष तौर पर ओडिशा, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे खनिज संसाधनों से संपन्न राज्य इस मामले में ज्यादा फायदे की स्थिति में रह सकते हैं।
्रलेकिन, इस मामले में सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि विभिन्न राज्य सरकारें जब अपने इस अधिकार का इस्तेमाल करने लगेंगी, तब उसका असर व्यवहार में किस तरह से सामने आएगा। इसका ठीक-ठीक अंदाजा तो तभी होगा, जब राज्य सरकारों के फैसले सामने आएंगे और उन्हें लागू किया जाएगा। फिर भी इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि विभिन्न राज्य अपनी जरूरतों के मुताबिक जो अतिरिक्त टैक्स लगाएंगे उससे तमाम खनिज पदार्थों की कीमतें बढ़ेंगी और इसका सीधा असर उन सभी उत्पादों की लागत पर पड़ेगा, जिनके उत्पादन में ये खनिज पदार्थ कच्चा माल के रूप में इस्तेमाल होते हैं। राज्यों में अलग-अलग टैक्स दरों के चलते इन पदार्थों की कीमतों में राष्ट्रीय स्तर पर तालमेल बनाए रखना भी चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है।
सबसे बड़ी बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने कानून की व्याख्या करते हुए संविधान में निहित संघवाद की भावना को ध्यान में रखा है और राज्यों के अधिकारों को संरक्षित करने पर जोर दिया है। शुरुआती चुनौतियों के बावजूद उम्मीद की जानी चाहिए कि यह फैसला देश में केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों को संतुलित करने में मददगार साबित होगा। राज्यों और केंद्र सरकार के बीच संबंधों को लेकर वैसे  व्यापक बहस की आवश्यकता है।
एक तरफ विकास की चुनौती है, तो दूसरी ओर कल्याणकारी योजनाओं के साथ ही वोट की खातिर जो घोषणाएं की जाती हैं, उनका पालन करने में राज्यों की सरकारों पर कर्ज लगातार बढ़ता चला जाता है। मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में फ्रीबीज योजनाओं के चलते कर्ज बजट के आसपास तक पहुंच गया है। हालत ये हो गई है कि कर्ज का ब्याज चुकाने के लिए भी कर्ज लेना पड़ रहा है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला तो मध्यप्रदेश सहित कई राज्यों के लिए बड़ी राहत देने वाला होगा। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना होगा कि करों का बोझ इतना बढ़ा दिया जाए कि आम आदमी कराहने लगे।
– संजय सक्सेना

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