Vishleshan

Editorial: बांग्लादेश मामले में बाइडेन से समर्थन मांगा…? आखिर इसकी जरूरत क्यों पड़ी?

IMG 20240905 133447

Oplus_131072

भारत हमेशा से ही पड़ौसी देशों के मामले में अमेरिका या यूरोप से दखल देने का विरोध करता रहा है। लेकिन आखिर ऐसी क्या परिस्थिति बनी कि हमें बांग्लादेश के मामले में अमेरिका से गुहार करने की जरूरत आन पड़ी? हम अपने संबंधों में किसी बाहरी देश का हस्तक्षेप चाहते हैं? क्या इसके लिए इस तरह की वार्ता होना चाहिए? या फिर हमें खुद ही दक्षिण एशिया को लेकर अपनी नीतियों में बदलाव करने की आवश्यकता है?
असल में पिछले हफ्ते नरेंद्र मोदी और जो बाइडेन के बीच फोन पर हुई बातचीत के बारे में भारत और अमेरिका के बयानों में फर्क का मामला सामने आया था।  इस बात को बड़ा मुद्दा बनाया गया कि अमेरिका ने अपने बयान में इस बात का जिक्र नहीं किया कि मोदी ने बांग्लादेश के हिंदुओं की हालत पर चिंता व्यक्त की। चर्चा यह चलने लगी कि एक मजबूत तथा स्थिर सरकार का नेतृत्व कर रहे प्रधानमंत्री को पड़ोस में हिंदुओं की सुरक्षा के लिए अमेरिका से बात करने की जरूरत कैसे पड़ गई।
माना कि अमेरिका आज हमारा करीबी रणनीतिक सहयोगी है, लेकिन क्या हमें याद आता है कि हमें अपने पड़ोस में हिंदुओं की सुरक्षा के लिए के किसी शासनाध्यक्ष से मदद की गुहार करनी पड़ी? या पिछली बार कब अपने पड़ोस में हालात पर काबू पाने के लिए किसी विदेशी सत्ता से मदद मांगने के लिए फोन करना पड़ा? इंदिरा गांधी की भले ही आपातकाल के लिए आलोचना की जाती रही हो, लेकिन उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान का झंझट हमेशा के लिए खत्म ही कर दिया था।
पूरी दुनिया से हम भले ही बार-बार अपील करते रहे हैं वह पाकिस्तान को सीमा पार से भारत में आतंकवादी हरकतें करने से रोका जाए, आतंकवादियों को प्रशिक्षण देना बंद कराया जाए, लेकिन क्या भारत ने सचमुच में कभी इस बात की परवाह की कि तहरीक-ए-तालिबान या तमाम तरह के नामों से सक्रिय दसियों लश्कर पाकिस्तान के अंदर क्या कर रहे हैं? और क्या भारत ने कभी यह कबूल किया था कि हमारे बिलकुल पड़ोस में किसी दूसरी सत्ता को कोई भूमिका निभाने का वैध अधिकार हासिल है? या हमें किसी को यह अधिकार देना चाहिए? इंदिरा युग में ‘वॉइस ऑफ अमेरिका’ ने त्रिंकोमली में जब अपना ट्रांसमीटर लगा दिया था, तब इस छोटी-सी घटना पर हमने साफ तौर पर अपनी नाराजगी व्यक्त की थी कि कोई विदेशी ताकत हमारे क्षेत्र में इस तरह कैसे अपना कदम रख सकती है।
पाकिस्तान में भी हिंदू समुदाय अपने पर अत्याचारों की शिकायत करता रहा है और वहां के कई हिंदुओं ने भारत में शरण भी ली है। श्रीलंका से लाखों तमिलों को निष्कासित किया गया, जिनमें अधिकांश हिंदू ही थे। नेपाल में मधेसी समुदाय अक्सर भेदभाव की शिकायत करता है और भारत से समर्थन मांगता रहा है। क्या भारत को पहले कभी अमेरिका या यूरोप से इन मामलों में दखल देने की मांग करने का ख्याल आया? क्या हम यह मानते हैं कि बांग्लादेश में अमेरिका हमसे ज्यादा वजन रखता है?
हमें यह पता होना चाहिए कि हमारा उच्चायोग और हमारे चार वाणिज्य दूतावास हर साल लगभग 20 लाख बांग्लादेशियों को वीजा जारी करते हैं। दिसंबर 1971 के बाद से भारत के बड़े रणनीतिक हित तीन सिद्धांतों पर आधारित रहे हैं। पहला यह कि भारत की भौगोलिक सीमाओं में कोई कटौती नहीं होनी चाहिए। दूसरा, अपने परमाणु हथियारों या जिसे रणनीतिक थाती कहते हैं, उन पर भारत का पूरा अधिकार होना चाहिए। और तीसरा, भारतीय उप-महादेश की अपनी अहमियत है। पिछले 53 वर्षों में 12 प्रधानमंत्रियों के तहत इन सिद्धांतों को स्थापित, विस्तृत व मजबूत किया जा चुका है, लेकिन तीसरे सिद्धांत पर अब सवाल उठने लगा  है।
यह सही है कि यह 1980 के दशक वाला भारत नहीं है। हमारी अर्थव्यवस्था अब 4 ट्रिलियन डॉलर वाली होने जा रही है और जल्द ही हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे। ‘पी-5’ देशों के बाहर भारत ही ऐसा है, जिसके पास परमाणु मिसाइलों से लैस पनडुब्बियां हैं। यही नहीं, क्वाड समूह में भी हम अहम भूमिका निभा रहे हैं।
यदि हम रूस-यूक्रेन में युद्ध बंद करवाने की नैतिक अहमियत और रणनीतिक वजन रखते हैं और दोनों देशों के प्रमुखों से बात कर सकते हैं, तो बांग्लादेश के मामले में स्वयं क्यों कदम नहीं उठाते? क्यों बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं की सुरक्षा के लिए अमेरिकी सहयोगियों की मदद मांग रहे हैं। यह एक तरह से दुनिया भर पर अमेरिकी वर्चस्व को कबूलना है, जिसे भारत हमेशा से चुनौती देता रहा है।
बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ जो व्यवहार हो रहा है, वह वास्तव में बहुत चिंताजनक है। 1950 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने अल्पसंख्यकों के साथ सलूक के मसले पर जवाहरलाल नेहरू के साथ हुए समझौते का पालन नहीं किया। अक्तूबर 1951 में ही उनकी हत्या कर दी गई और पाकिस्तान ने दो स्वतंत्र देशों के बीच हुए ऐसे वायदे की पवित्रता को महत्व नहीं दिया। तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में 1971 के जनसंहार के कारण भारत में शरण लेने वाले एक करोड़ से ज्यादा लोगों में से लाखों हिंदू वापस नहीं लौटे। इसके अलावा, 1950 और 1960 के दशकों में भी वहां से हिंदुओं के पलायन होते रहे, लेकिन तथ्य यह है कि 1970 के दशक में यह पलायन काफी घटा और अंतत: रुक भी गया।
यह सही है कि शेख हसीना का 15 साल का शासन हिंदुओं के लिए सबसे शांतिपूर्ण दौर रहा और उनमें से कुछ लोगों को सत्ता तंत्र में प्रमुख पद भी मिले, लेकिन उस दौर में भी दंगे या हमले बात-बात पर होते रहते थे। 2013 में बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट ने जब जमात-ए-इस्लामी के चुनाव लडऩे पर प्रतिबंध लगा दिया तो हिंदुओं और उनके मंदिरों पर भीड़ ने हमले किए। हसीना के नाटकीय पतन के घटनाक्रम में भी हिंदुओं और उनके मंदिरों के साथ ही इंदिरा गांधी सांस्कृतिक केंद्र को भी निशाना बनाया गया, लेकिन अंतरिम सरकार ने बड़े बयान देकर कुछ सुरक्षा का माहौल लौटाया है। इतनी तत्परता से इसलिए भी कदम उठाए गए, क्योंकि भारत ने सख्त रुख अपनाया।
आज बांग्लादेश में भारत विरोधी भावनाएं सडक़ों पर चाहे जितनी उबल रही हों, लेकिन वहां के शासक वर्ग को यह एहसास है कि भारत के साथ उनके रिश्ते कितना महत्व रखते हैं। इसलिए हमें किसी अन्य बाहरी देश से बात करने के बजाय अपने सभी पड़ौसी देशों के साथ अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना होगा। और अपना रवैया भी बदलना होगा। दक्षिण एशिया में हम सबसे बड़े और महत्वपूर्ण देश हैं, यह हमेशा ध्यान रखना है।
– संजय सक्सेना

Exit mobile version