Editorial: अरविंद का आतिशी दांव..!

आप नेता अरविंद केजरीवाल देश के गिने-चुने राजनेताओं में शुमार हो चुके हैं और वे सीधे किसी को भी चुनौती देने वाली शख्शियत बन गए हैं। लेकिन दिल्ली का दांव, जिसे आतिशी दांव कहा जा रहा है, यह सफल होगा या नहीं, इस पर राजनीतिक प्रेक्षकों की नजर अवश्य रहेगी।
असल में ऐसे अप्रत्याशित हालात में आतिशी को आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल की जगह दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है, जो बहुत ही कठिन और बेहद चुनौतीपूर्ण कहे जा सकते हैं। विधानसभा चुनावों से ठीक पहले राज्य में नेतृत्व परिवर्तन के कई उदाहरण हाल के वर्षों में दिखे हैं, लेकिन यह मामला उन सबसे एकदम अलग है। वैसे देखा जाए तो भाजपा ने बहुत पहले प्रयोग किया था, साहिब सिंह वर्मा, श्रीमती सुषमा स्वराज, मदनलाल खुराना के साथ, वो प्रयोग एकदम असफल रहा। उसके बाद भले ही लोकसभा में भाजपा ने सबका सफाया कर दिया, लेकिन विधानसभा में बहुत पिछड़ गई। 
पिछले करीब दो साल न केवल आम आदमी पार्टी के लिए बल्कि दिल्ली सरकार के लिए भी इस मायने में चुनौतीपूर्ण रहे कि एक-एक कर उसके कई बड़े नेता और मंत्री जेल भेज दिए गए। मुख्यमंत्री केजरीवाल के जेल जाने के बाद संकट और गहराया। उस अवधि में आतिशी ने पार्टी का प्रभावशाली ढंग से बचाव किया। वह एक तरह से पार्टी का चेहरा ही बन गईं। पार्टी में उनकी बढ़ी हुई हैसियत का संकेत इस बात से भी मिला कि मुख्यमंत्री केजरीवाल ने जेल के अंदर से पत्र भेजकर कहा कि 15 अगस्त को उनकी जगह आतिशी के हाथों झंडोत्तोलन होना चाहिए।
दिल्ली विधानसभा के चुनाव आगामी जनवरी- फरवरी में होने हैं। अरविंद केजरीवाल इन चार- पाँच महीनों को अग्नि परीक्षा का समय मान रहे हैं। वे इसमें से पवित्रता का वरदान चाह रहे हैं। कह रहे हैं कि अब जनता से पूछेंगे कि वह उन्हें ईमानदार मानती है या बेईमान? अगर जनता उन्हें ईमानदार मानती है तो आप को जिताकर ईडी- सीबीआई सबको झूठा साबित कर दे। अगर जीत जाते हैं तो चार महीने के लिए कुर्सी छोडक़र जो अमरता वे चाह रहे थे वह भी मिल जाएगी और चूँकि उनके नारे पर ही जीत मिलेगी, इसलिए पार्टी के भीतर किसी किसी और की संभावना भी एक तरह से समाप्त हो जाएगी।
केजरीवाल चतुर सुजान हैं और राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी बन गए हैं। हालाँकि चुनावी जीत किसी के ईमानदार होने की गारंटी नहीं हो सकती। इससे पहले भी जेल जाने या भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे होने के बाद भी जयललिता, करुणानिधि और ऐसे कई नेताओं ने प्रचंड जीत पाई है। फिर भी केजरीवाल की इस्ती$फा रणनीति कमाल की मानी जा रही है। क्योंकि भले ही चार महीने के लिए हो या चार दिन के लिए, हिंदुस्तान में कुर्सी छोडऩा, रोटी छोडऩे से भी कठिन काम है। यह कतई आसान नहीं था।
यही वजह है कि केजरीवाल अपने इस त्याग को छाती चीरकर दिखाएँगे। आगामी दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भी और मौजूदा हरियाणा चुनाव में भी इसका लाभ उठाने की कोशिश होगी। भाजपा हालाँकि केजरीवाल के इस ‘त्याग’ को नौटंकी बताते नहीं थक रही है लेकिन सच ये है कि केजरीवाल का प्रचार अभियान हरियाणा में भाजपा को नई ऊर्जा देने वाला है। आप को जितने वोट मिलेंगे, भाजपा को उतना $फायदा होगा और कांग्रेस को नुकसान, जो इस समय काफी बेहतर स्थिति में दिख रही है। जहां तक दिल्ली के चुनाव का सवाल है यहाँ तो सुषमा स्वराज, मदनलाल खुराना और डॉ. हर्षवर्धन के बाद भाजपा के पास कोई स्थाई, स्थानीय और चुनाव जिताऊ चेहरा ही नहीं रहा, कोई नया चेहरा खोजना होगा।
जहां तक नई मुख्यमंत्री का प्रश्न है, तो आतिशी को इस पद पर बहुत ज्यादा समय नहीं मिलेगा। उनके हिस्से में यह पद तब आया जब पार्टी के दो सबसे बड़े नेताओं अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने कह दिया कि वे नए सिरे से जनादेश हासिल करने के बाद ही पद पर बैठेंगे। अगर पार्टी जनादेश हासिल नहीं कर पाती तब तो उन्हें पद छोडऩा ही पड़ेगा, अगर पार्टी चुनाव जीतती है तब भी मुख्यमंत्री पद से उनका हटना लगभग तय है। ऐसे में अगर उन्हें अपने कामकाज की छाप छोडऩी है तो उसके लिए वक्त सचमुच बहुत ही कम है।
अब देखने वाली बात यह भी होगी कि मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारियों से मुक्त अपने दो नेताओं की ऊर्जा का आम आदमी पार्टी किस तरह का इस्तेमाल करती है। यह कह सकते हैं कि आप की आगामी रणनीति पर विश्लेषकों के साथ ही विरोधी दलों की नजर होगी। दिल्ली में निश्चित रूप से उसकी लड़ाई भाजपा के साथ ही कांग्रेस से भी अपनी जमीन बचाने की होगी, लेकिन हरियाणा में विपक्षी गठबंधन इंडिया की एकजुटता फिलहाल तो दिखने वाली नहीं है।
वैसे भी विपक्षी गठबंधन ने लोकसभा चुनाव को ही टार्गेट बनाया है, विधानसभा में गठबंधन की कोई शर्त नहीं। फिर भी हरियाणा चुनाव में बहुत कुछ साफ हो जाएगा और फिर दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति बनना तय माना जा रहा है। ऐसे में आप अपना किला कैसे बचा पाएगी, यह सवाल तो बाद का है, फिलहाल तो कुछ सवाल हैं, जैसे-आतिशी कैसे सरकार चलाती हैं? आतिशी केवल रिमोट बन कर तो नहीं रह जाएंगी? केजरीवाल का कितना हस्तक्षेप होगा? और भी, जिनके निकट भविष्य में जवाब मिल जाएंगे।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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