Edirorial: दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था.. RBI की रिपोर्ट..रोज के खर्च के लिए भी कर्ज..!

एक तरफ हम देश को दुनिया की पांचवीं अर्थव्यवस्था कहकर गौरवान्वित हो रहे हैं, दूसरी ओर एक बड़ा वर्ग देश में ऐसा भी है, जो रोजमर्रा के खर्च के लिए भी कर्ज लेने के लिए विवश है। यह खुलासा किसी निजी सर्वे कंपनी या संस्था का नहीं, अपितु भारतीय रिजर्व बैंक ने ही किया है। ऐसे में यह मामला बहुत गंभीर हो जाता है। यह बात और है कि हम इस पक्ष को नजरअंदाज कर दें।
रिजर्व बैंक ने खुलासा किया है कि छोटे कर्जदार जहां रोजमर्रा के खर्च चलाने के लिए कर्ज ले रहे हैं, जबकि बड़े उधारकर्ता ऋण लेकर संपत्तियां बना रहे हैं। खासकर मकान के लिए बड़े कर्जदाता उधारी ले रहे हैं। ऐसे लोगों का क्रेडिट स्कोर 720 से ऊपर होता है, जबकि छोटे कर्जदारों का स्कोर 720 से नीचे होता है। बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले तीन वर्षों में भारतीय परिवारों के कर्ज में वृद्धि दर्ज की गई है। इसकी प्रमुख वजह कर्ज लेने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी है। जून, 2024 में मौजूदा बाजार मूल्यों पर जीडीपी का 42.9 प्रतिशत कर्ज भारतीय परिवारों पर था। यह अन्य उभरते देशों की तुलना में काफी कम है।
रिपोर्ट कहती है कि मुख्य रूप से जो व्यक्तिगत कर्ज भारत में लिए जा रहे हैं, वे पर्सनल लोन, क्रेडिट कार्ड, कंज्यूमर ड्यूरेबल, वाहन, दोपहिया, शिक्षा, कृषि और मॉर्गेज लोन हैं। उच्च श्रेणी के उधारकर्ताओं के बीच प्रति व्यक्ति कर्ज में वृद्धि और परिसंपत्ति निर्माण के लिए ऋण का उपयोग वित्तीय स्थिरता बढ़ाने वाला है। यहां खास बात यह है कि अगर आपने पर्सनल लोन या क्रेडिट कार्ड का बिल नहीं चुकाया, तो आपके होम लोन या कार लोन पर भी मुसीबत आ सकती है। आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, अगर आप छोटे कर्ज पर डिफॉल्ट करते हैं, तो बैंक आपके सभी कर्ज को एनपीए मान सकते हैं।
एक तथ्य यह भी है कि सबसे ज्यादा डिफॉल्ट पर्सनल लोन और क्रेडिट कार्ड जैसे बिना गारंटी वाले कर्ज में होते हैं। ऐसे लोग, जिन्होंने इन छोटे कर्जों के साथ घर या गाड़ी के लिए बड़े कर्ज भी लिए हैं, उनके लिए खतरा ज्यादा बढ़ जाता है।
इस बीच वैश्विक स्तर की बात करें तो विश्व स्तर पर सार्वजनिक ऋण 2024 के अंत तक जीडीपी का 93 फीसदी पहुंच जाएगा। यानि 100 लाख करोड़ डॉलर पार कर जाएगा। 30 जून तक चीन का कर्ज उसकी जीडीपी के अनुपात में 140 फीसदी था, जबकि जापान का 120 फीसदी था। उभरते बाजारों और यूरो जोन का कर्ज जीडीपी का 100-100 फीसदी, विकसित देशों का 90 फीसदी, अमेरिका का 85 फीसदी, ब्रिटेन का 70 फीसदी और भारत का 43 फीसदी रहा है।
यह चिंता की बात है कि क्रेडिट कार्ड व पर्सनल लोन लेने वाले करीब आधे उधारकर्ताओं के पास एक या अधिक रिटेल लोन पहले से ही है। इस तरह के कर्ज अक्सर ज्यादा रकम वाले होते हैं, जो हाउसिंग या वाहन या दोनों होते हैं। इन बड़े और सुरक्षित ऋणों की तुलना में छोटे पर्सनल लोन में एनपीए का ज्यादा खतरा होता है। सबसे ज्यादा डिफॉल्ट अधिकतर असुरक्षित लोन में होता है। चूक का जोखिम उन उधारकर्ताओं में ज्यादा है, जिन्होंने पर्सनल लोन या क्रेडिट कार्ड बकाया के अलावा अन्य खुदरा ऋण लिया है।
आरबीआई ने किसी भी तरह के जोखिम से निपटने के लिए हाल में असुरक्षित ऋण जैसे कुछ खुदरा कर्जों पर बैंकों और एनबीएफसी के लिए उच्च जोखिम भार लगाया है। कर्ज का लगभग दो तिहाई हिस्सा बेहतर क्रेडिट क्वालिटी वाला है। 50,000 रुपये से कम पर्सनल लोन लेने वाले 11 फीसदी उधारकर्ताओं में से 60 प्रतिशत से अधिक ने 2024-25 में तीन से अधिक बार कर्ज लिया है।
यह रिपोर्ट साफ तौर पर यह संकेत देती है कि भारतीय बाजारों में भले ही रौनक दिखाई दे रही है, लेकिन यह रौनक कहीं न कहीं खोखली है। जिस देश में लोग दो जून की रोटी के लिए कर्ज ले रहे हों, वहां हम कैसेे कह सकते हैं कि विकसित अर्थव्यवस्था है। या उस तरफ हम जा रहे हैं। विकसित का मतलब क्या कर्ज में डूबे लोग और कर्ज में डूबी राज्य सरकारों से होता है? क्या घर के खर्च के लिए कर्ज लेने की स्थिति को हम सामान्य कह सकते हैं? ऐसे बहुत सारे सवाल हैं।
और सबसे बड़ा सवाल यह है कि छोटे कर्जदारों की सिबिल बहुत कम कर्ज में ही खराब हो जाती है, लेकिन बड़े कर्जदारों के लिए सीमा करोड़ों तक पहुंच जाती है। जबकि छोटे कर्ज तो पटा दिये जाते हैं, बड़े कर्जदार खुद को दिवालिया तक घोषित करके बच निकलते हैं। ऐसे घोटाले भी बहुत हो रहे हैं। लेकिन छोटे कर्जदारों को बैंक कर्ज नहीं देतीं। और जब औसत आय निकाली जाती है तो इन छोटे कर्जदारों की आय भी लाखों में दिखती है।
एक तरफ हजारों में सिमटे लोग और बढ़ते करोड़पतियों की आय को मिलाकर जब औसत आय निकाली जाती है, तो यह बड़ा आंकड़ा आ जाता है। इस आधार पर हम दुनिया के सामने गर्व से कह देते हैं कि पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इसका दूसरा पक्ष आखिर कब देखा जाएगा? कहीं हम एक बार फिर से अर्थ आधारित वर्ग संघर्ष की स्थिति की तरफ तो नहीं जा रहे? 
– संजय सक्सेना
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Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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