लोकसभा चुनावों से लेकर हरियाणा, महाराष्ट्र- झारखंड जैसे राज्यों में जिस तरह के चुनाव परिणाम आए, उनसे ऐसा लगता है मानो देश से एंटी-इनकम्बेंसी का दौर खत्म हो रहा है। और, प्रो-इनकम्बेंसी के रूप में वोटों की नकद खरीदी योजना का दौर शुरू हो रहा है। वोट प्रबंधन की एक नई प्रणाली स्थापित होती दिख रही है, जिसके चलते सत्ता में अपना कब्जा जमा चुकी पार्टियों का तख्ता पलटना मुश्किल होता जा रहा है।
हरियाणा में भी अनुमानों के महल ध्वस्त हुए और एक अलग तरह का वोट प्रबंधन सामने आया, जिससे सत्ता में बैठी भाजपा ने, कांग्रेस के कथित अति आत्मविश्वास और सरकार के खिलाफ कथित एंटी इनकम्बेंसी के मिथक को तोड़ दिया। अब महाराष्ट्र और झारखंड ने हमारे सामने विधानसभा चुनाव लडऩे और जीतने का एक और मॉडल पेश करता है। वैसे इसकी शुरुआत मध्यप्रदेश से ही हुई, जहां लाड़ली बहना योजना भाजपा की सत्ता में वापसी का बड़ा कारक बनी।
पिछले दो दशकों से मतदाताओं को योजनाओं की रेवडिय़ों के बजाय सीधे नकद योजनाओं से लुभाने का दौर चल निकला है। मतदाताओं के बड़े हिस्से के खाते में सीधे-सीधे छोटी-छोटी रकमें डालने की योजना को चुनाव से कुछ महीने पहले से लागू कर महिलाओं के वोट बड़ी संख्या में हासिल करने में सत्तापक्ष सफल हो रहा है। एक तरफ केंद्र के केबिनेट सचिवों की कमेटी फ्रीबीज योजनाओं का विरोध करती है, राज्य सरकारें इसके चलते भारी कर्ज के बोझ में दबती चली जा रही हैं, लेकिन नकद रेवडिय़ों का वितरण बंद होने के बजाय और अधिक लोकप्रिय होता जा रहा है।
एक तरफ पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं और समर्थन-आधार में जोश पैदा करने के लिए एक आक्रामक नारा दे रही हैं। आपस में लड़ाने के और तीखे तरीके अपनाये जा रहे हैं। लोग जोश में आकर अपना भला-बुरा सोचे बिना ही वोट डालने लगे हैं। इसके साथ ही चुनाव का बारीकी और सफाई से प्रबंधन किया जा रहा है। हर तरह के संसाधन झोंके जा रहे हैं और इसमें नकदी शामिल की जा रही है। विरोधियों को जेलों में ठूंस दिया जाए। उन्हें तमाम मामलों में उलझाकर रखा जाये। और प्रशासनिक व्यवस्था को पूरी तरह से हाथ में ले लिया जाए।
चुनाव प्रबंधन यानि इलेक्शन मैनेजमेंट का यह नया माडल उनके लिए बेहतर साबित हो रहा है, जो चुनाव के समय सत्ता में काबिज होती हैं। मतदाता साफ बोलने लगा है कि ये तो जीतने के बाद देंगे, हमें तो अभी चाहिए, वो सत्ता में बैठी पार्टी दे रही है। हम दूसरी पार्टी की उम्मीद रखें ही क्यों। चुनाव जीतने का यह मॉडल एंटी-इनकम्बेंसी को पलट देने का मॉडल भी है। हाल के चुनावों में कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और तेलंगाना ऐसे अपवाद राज्य साबित हुए, जहां सत्ता में बैठी पार्टी एक तो बदनाम ज्यादा हो गई थीं। दूसरे वहां ये लोग नकद प्रबंधन कम कर पाए और प्रशासनिक प्रबंधन में भी फेल हो गए।
यह नया माडल फिलहाल तो चल ही रहा है और मैदान में जाओ तो लोग सीधे कहते हैं, जो नकद दे रहा है, हम उसी के साथ हैं। लेकिन कब तक चलेगा, यह नहीं कहा जा सकता। इसके साथ ही पार्टी में चतुराई, लचीलेपन और दूरंदेशी की जरूरत भी हर चुनाव में पड़ती है और रणनीतिक गलतियों का खामियाजा हर पार्टी को उठाना पड़ता है। हरियाणा में कांग्रेस की रणनीतिक गलतियों ने ही उसे सत्ता से दूर कर दिया।
झारखंड में भाजपा ने चुनाव से पहले एक ‘ईडी-एडवेंचर’ किया था। मनी-लॉन्ड्रिंग के एक मामले में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया। कुछ दिन के मुख्यमंत्री चंपई सोरेन को तोड़ लिया गया। इसके चलते सोरेन ने आदिवासी अस्मिता का नारा देकर सत्ता हासिल करने में कामयाबी प्राप्त कर ली। इसके साथ ही सोरेन ने मैया सम्मान योजना के जरिए हजारों परिवारों में एक हजार रुपए प्रति माह बांटे। एक बात और कही जा रही है कि यदि भाजपा को झारखंड की कीमत पर महाराष्ट्र मिल गया तो इसमें घाटा कहां हुआ? इसके पीछे अपने-अपने तर्क भी हैं।
महाराष्ट्र में भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं और पारम्परिक जनाधार ‘बटेंगे तो कटेंगे’, ‘एक हैं तो सेफ हैं’ और ‘वोट जिहाद’ जैसे नारों से जोश भरने में कथित तौर पर कामयाबी हासिल कर ही ली। वहां हर प्रकार के संसाधनों का खुले हाथ से इस्तेमाल किया गया। बूथ-प्रबंधन की भाजपाई मशीनरी के साथ संघ की भी खासी भूमिका रही। इसके विपरीत महा विकास अघाड़ी की कहानी रणनीतिक गलतियों से भरी रही। कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगा कि लोकसभा चुनाव में सफल हो चुकी तरकीब विधानसभा चुनाव में भी चल जाएगी। इसलिए उनका फोकस संविधान-सभाएं करने और जातिगत जनगणना की मांग बुलंद करने पर रहा। उनके पास कहने के लिए नया कुछ नहीं था और न ही बांटने के लिए नकद वाली योजना
नकद योजना की बात करें तो 1500 रुपये महीने का मतलब प्रति दिन 50 रुपये। इसी तरह हजार रुपए महीने का अर्थ प्रतिदिन केवल 33.33 रुपये हुआ। इससे साफ पता चलता है कि भारत के ज्यादातर मतदाता कितने गरीब हैं। इतनी छोटी रकम से भी वे राहत महसूस करते हैं। और वोट देने का आधार यह रकम बन जाती है। लाभार्थी योजनाओं की फिलहाल खासियत यह बन गई है कि जब योजना नई होती है तो उसके लाभार्थी मदद देने वाली सरकारी पार्टी के प्रति कृतज्ञता अनुभव करते हैं। लेकिन जब योजना पुरानी हो जाती है तो वे उस तत्परता से बदले में वोट नहीं देते।
अब देखना यह होगा कि नकदी से वोट खरीदी योजनाएं कब तक चलती हैं और भविष्य में कितनी कारगर होती हैं? फिलहाल तो गरीब मतदाता आराम से बिक भी रहा है और सरकारें कर्ज के गर्त में भी डूबती जा रही हैं। दूसरा पहलू किसे देखना है? जो सरकार में है, उसका सर दर्द है। जिसे ज्यादा दिक्कत है, वह चर्चा करके अपनी तकलीफ जाहिर कर देता है। मतदात खुश है, तो सब ठीक है। बिक रहा है, इससे क्या फर्क पड़ता है।
– संजय सक्सेना