Edirorial: पॉपकॉर्न बनाम जीएसटी

हाल ही में पॉपकॉर्न पर जीएसटी का मामला बहुत चर्चाओं में रहा। इस पर सोशल मीडिया में जमकर बहस भी हुई और मीम्स भी बने। इसके बाद इस पर विभाग की तरफ से सफाई भी जारी हुई कि लूज पॉपकॉर्न पर 5 फीसदी जीएसटी ही रहेगा। लेकिन यह सफाई किसी काम की नहीं, क्योंकि पॉपकॉर्न बाजार में महंगा तो हो ही गया। बात यदि जीएसटी की करें, तो आम आदमी से वाकई हलाकान है, सरकार ने इतने टैक्स लाद दिये हैं कि टैक्स देते-देते जिंदगी बीत  जाती है, टैक्स खत्म नहीं होते।
पहले पॉपकॉर्न की बात करते हैं। जीएसटी काउंसिल की बैठक हुई तो अचानक पॉपकॉर्न पर जीएसटी चर्चाओं में आ गया। विभाग का कहना है कि जिस पॉपकॉर्न को नमक और मसालों (सॉल्ट और स्पाइसेज) के साथ मिलाया गया हो उसे जीएसटी नियम के तहत नमकीन की कैटेगरी में रखा गया है और इस पर 5 फीसदी टैक्स लगता है. वहीं पॉपकॉर्न को अगर पहले से पैक और लेबल किया हुआ होता है, तो यह दर 12 फीसदी होती है. जीएसटी एफएक्यू में बताया गया है कि भारत नमकीन को पहले से पैक और लेबल किए गए फॉर्म के अलावा अन्य रूप में बेचने पर 5 परसेंट जीएसटी लगता है और प्री-पैकेज और लेबल वाले फॉर्म में बेचने पर 12 प्रतिशत जीएसटी लगता है। कुछ स्पेशल वस्तुओं को छोडक़र सभी चीनी कन्फेक्शनरी पर 18 परसेंट जीएसटी लगता है और इस लिहाज से कैरेमलाइज्ड पॉपकॉर्न पर 18 फीसदी की दर से जीएसटी लागू होगा। खुद देश की वित्त मंत्री को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बात को स्पष्ट करना पड़ा।
लेकिन एक बात साफ है, पॉपकॉर्न पर पांच प्रतिशत से लेकर 18 प्रतिशत तक जीएसटी लग रही है। जबकि पॉपकॉर्न उस मक्का का उत्पाद है, जिसे आजकल मिलेट्स की श्रेणी में शुमार किया गया है और सरकार दुनिया भर में मिलेट्स का प्रचार भी कर रही है। लेकिन यहां जो बच्चे पॉपकॉर्न खाते हैं, युवा मक्के के जो दूसरे उत्पाद खाते हैं, उन पर लगे टैक्स उसे लगातार महंगा ही कर रहे हैं। यह बाजार का सच है। सरकार में बैठे लोगों को महंगाई इसलिए भी नहीं लगती, क्योंकि वे तो हर बार महंगाई भत्ते के रूप में अपना वेतन बढ़वा लेते हैं। और उन्हें वेतन के अलावा भी बहुत कुछ मिल जाता है। जिनके पास उतना वेतन, कमाई या संसाधन नहीं हैं, महंगाई या टैक्स उन्हीं के लिए तो भारी लगते हैं।
जीएसटी की बात करें तो पिछले दशक के सबसे कठिन सुधारों में से एक राष्ट्रीय जीएसटी था, जिसे 2017 में लागू किया गया। इसने विभिन्न केंद्रीय और राज्यों के अप्रत्यक्ष करों की जगह ले ली। संसद के दोनों सदनों के अलावा हर राज्य की विधानसभा को भी जीएसटी विधेयक पारित करना था। इसके कारण लाखों व्यवसायों की पूरी टैक्स प्रणाली को बदलना पड़ा। ऑनलाइन सिस्टम बनाना पड़ा। केंद्र और राज्यों के बीच राजस्व का विभाजन तय करना पड़ा। इसके लिए जनता का विश्वास जीतना भी जरूरी था। भारत जैसे देश के लिए यह एक धीमा और कठिन सुधार था।
भाजपा इसे अपनी बड़ी उपलब्धि जरूर मानती है, लेकिन जनता तो हलाकान ही है। यही वजह है कि पिछले हफ्ते इंटरनेट पर कैरेमलाइज्ड-पॉपकॉर्न पर जीएसटी को लेकर मीम्स की धूम मची हुई थी। पता चला कि सादे या नमकीन पॉपकॉर्न पर 5 प्रतिशत जीएसटी लगता है, लेकिन कैरेमलाइज्ड पर 18 प्रतिशत। एक रेस्तरां-चेन के मालिक अनुसार बन पर कम टैक्स लगता है, क्रीम पर कम टैक्स लगता है, लेकिन अगर क्रीम को बन पर लगाया जाए, तो दोनों पर ज्यादा टैक्स लगता है। इसका नतीजा यह रहा कि उनके ग्राहक क्रीम और बन अलग-अलग मांगने लगे। यह बात मजाक में कही गई थी, लेकिन यह एक सच्चाई को भी दर्शाती है। यह कि चीजों को सरल बनाने के मकसद से किया गया जीएसटी समय के साथ और जटिल होता जा रहा है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि इस समस्या का मूल कारण नीति-निर्माताओं की मानसिकता है। वे हर चीज को नियंत्रित करने की अपनी इच्छा को नहीं छोड़ सकते, टैक्स में भी अपनी नैतिकता थोप सकते हैं, अतिरिक्त कर-राजस्व की हर बूंद निचोडऩे के लिए चतुर नीतियां बना सकते हैं और जीएसटी के पीछे के इस व्यापक उद्देश्य को देख नहीं पाते कि उसे चीजों को सरल बनाने के लिए लाया गया था। अनेक टैक्स स्लैब, उपकरों और नीति-निर्माताओं के हाथों में अनियंत्रित शक्तियों वाला जटिल जीएसटी, जीएसटी सुधार न होने के बराबर है। सीधे शब्दों में यह बोझ बन गया है।
जीएसटी की शुरुआत के समय इसमें चार स्लैब थे – 5 प्रतिशत, 12 प्रतिशत, 18 प्रतिशत और 28 प्रतिशत। कुछ वस्तुओं को जीएसटी से छूट दी गई थी, जिससे उन पर 0 प्रतिशत स्लैब जुड़ गया। ईंधन जैसी कुछ वस्तुओं को जीएसटी से बाहर रखा गया, जिन पर कर की दरें और अधिक थीं। इससे अतिरिक्त स्लैब बन गया। इस प्रकार, छह अलग-अलग जीएसटी दरों के साथ शुरुआत की। समय के साथ, कुछ उत्पादों (जैसे लग्जरी कारों) पर कई तरह के उपकर जोड़े गए, जिसका अर्थ है कि इन छह स्लैबों में और भी हेरफेर करके नीति-निर्माता अपनी इच्छानुसार जीएसटी दर तय कर सकते हैं।
कई स्लैब के साथ शुरुआत करने के पीछे जटिल व्यवस्था में सुधार का विचार था। लेकिन जैसे-जैसे हम 2025 के करीब पहुंच रहे हैं, हमें जीएसटी को और सरल बनाना चाहिए। लेकिन अभी तो हम मीठे बनाम नमकीन और उनकी कर-दरों पर बहस में ही उलझे हैं। वैसे, नमकीन स्नैक्स भी पाचन के दौरान शरीर द्वारा शुगर के रूप में ही टूटता है। सवाल तो उठेगा ही- क्या जीएसटी को स्नैक्स को हजम करने के बाद वाली शुगर पर भी टैक्स लगाना चाहिए?
जूते से लेकर झाड़ू तक कई वस्तुएं ऐसी हैं कि उनमें अलग-अलग तरह के टैक्स लग जाते हैं। कुछ यदि शून्य या पांच प्रतिशत वाली हैं तो कुछ पर 18 या 28 प्रतिशत भी लग जाता है, जैसे वैक्यूम क्लीनर।
इनमें से कई नीतियां उदारीकरण से पहले की इस मानसिकता से उपजी हैं कि जो चीज अच्छी, मजेदार, आरामदायक हो, उस पर टैक्स लगा दो। और अगर कोई चीज उच्च गुणवत्ता वाली है या सम्पन्न लोगों द्वारा उपयोग की जाती है तो उस पर और अधिक टैक्स लगाया जाना चाहिए। जबकि जीएसटी पहले ही एक परसेंटेज-बेस्ट टैक्स है, जो सुनिश्चित करता है कि ऊंची कीमतों वाले आइटम्स अधिक कर-भुगतान करेंगे। यदि हम बजट जीएसटी पर सुधार की बात कर रहे  हैं तो नीति निर्माताओं की मर्जी के बजाय आम आदमी की जरूरत और बदलती जरूरतों को ही ध्यान में रखना होगा। तभी हम इसका औचित्य सिद्ध कर पाएंगे।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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