जन का गणतंत्र, मन की बात और अधिनायक की जय…! आज ही के दिन उन्नीस सौ पचास में हमारा अपना संविधान लागू हुआ, सो आज हम छिहत्तरवां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। गणतंत्र दिवस की अनंत शुभकामनाएं। हमारे गणतंत्र की एक नहीं, अनेक विशेषताएं हैं और इसीलिए हम अनेकता में एकता के साथ अक्षुण्ण भारत के अक्षुण्ण गणतंत्र की जय करते हैं। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। स्वतंत्रता से लेकर आज तक हमारे गणतंत्र में भी परिवर्तन हुआ है और संविधान में भी लगातार संशोधन और परिवर्तन होता आ रहा है।
आज जब हम गणतंत्र दिवस मना रहे हैं, तब देश में संविधान पर बहस छिड़ी हुई है। संविधान की पुस्तक राजनीतिक युद्ध का विषय बन गई है। संविधान में संशोधन बनाम परिवर्तन की बात चल रही है। संविधान की धज्जियां उड़ाने के आरोप लग रहे हैं। संविधान जैसे पूरे देश का नहीं, किसी दल विशेष का हो गया है और सब अपने-अपने संविधान की बात करते दिख रहे हैं।
देखा जाए तो जब गणतंत्र की मजबूती की बात होना चाहिए, तब हम संविधान को लेकर लड़ रहे हैं। तू-तू, मैं-मैं कर रहे हैं। संविधान न हुआ जंग का मैदान हो गया है। राजनीतिक जंग का मैदान। निजी निहित स्वार्थों के लिए सचेष्ट ये संकीर्ण समूह परस्पर कीचड़ उछालते हुए सत्ता के गलियारों में आधिपत्य के लिए संघर्ष करते दिख रहे हैं। लगता है कि जो जनतंत्र में शासन ‘जनता द्वारा जनता के लिए’ है, वो अब ‘दल द्वारा दल के लिए’ हो गया है। जनतंत्र की उदार दृष्टि दलीय महत्वाकांक्षाओं की दलदल में धँसकर जनकल्याण से दूर जाती दिख रही है। राजनीतिक दल जनकल्याण के नाम पर प्रचारित योजनाओं के माध्यम से अपनी भावी चुनावी विजय की रूपरेखा रच रहे हैं, वोट-बैंक तैयार कर रहे हैं और राष्ट्रीय-हितों के नाम पर दलीय-हितों के साधन में अपनी ऊर्जा नियोजित कर रहे हैं।
भारतीय जनतंत्र की साढ़े सात दशक की लम्बी यात्रा इस बिडम्बना की साक्षी है। जनतंत्र जनसेवा की आदर्श व्यवस्था है। उसके सम्यक् संचालन के लिए अनुभवी, ईमानदार और ऐसे न्यायप्रिय निर्भीक नेतृत्व की आवश्यकता है जो समस्त संकीर्णताओं और दलीयस्वार्थों से ऊपर उठकर सम्पूर्ण समाज के लिए उचित निर्णय ले और जिसे सब स्वीकार करें। परंतु वर्तमान की विडम्बना यह है कि आज जनतांत्रिक व्यवस्था का आधार दलगत राजनीति है और दलगत राजनीति की कोख से जनमे नेतृत्व का सर्वस्वीकृत होना प्राय: असंभव है।
तथापि अब यह नितान्त आवश्यक है कि हम वोट-बैंक और दलीय-स्वार्थों की ओछी कूटनीतियाँ छोडक़र ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ की सच्ची राजनीति के प्रति प्रतिबद्ध हों अन्यथा ‘सर्वोदय’, ‘अन्त्योदय’ और ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसे नारे सार्थक न हो सकेंगे और भारतीय समाज में बढ़ती विषमताएं, विसंगतियाँ असंतोष और आक्रोश को उग्रकर लोकतन्त्र का मार्ग कंटकाकीर्ण कर देंगीं। समय रहते हमें और हमारे नेतृत्व को यह कटु यथार्थ समझ लेना चाहिए कि नेतृत्व की शुचिता पर ही जनतंत्र का निर्वाह संभव है।
क्या ऐसा हो पायेगा? जब समानता की बात कही जाती है, तो हमें लगातार बढ़ती आर्थिक असमानता की खाई दिखाई देने लगती है। जब सामाजिक समानता और समरसता की बात आती है, तो बढ़ते जातिगत और सांप्रदायिक विवाद और इसे उकसाने वाली राजनीतिक मंशाएं दिखने लगती हैं। जातिगत और सांप्रदायिक सद्भाव केवल किताबी शब्द बनकर रह जाएगा, आज यह साफ दिखाई देने लगा है। पर, यह तो हमारे संविधान का मूल है। यह तो हमारे गणतंत्र की मूल भावना है।
्रसर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के नारे के बीच एक वर्ग को मुफ्त की रेवडिय़ां बांट कर वोट हड़पने की होड़ दिखाई देती है। समान अवसर की आड़ में वोट बैंक बनाने की प्रतिद्वंद्विता साफ दिखती है। अर्जुन को जिस तरह से मछली की आंख दिखाई देती थी, आज राजनीतिक दलों को सत्ता की कुर्सी दिखाई दे रही है। गणतंत्र की मूल भावना संविधान की पुस्तक में कैद होकर कहीं सिसक रही है। जो संविधान की पुस्तक लेकर घूम रहे हैं, शायद वो भी इसे केवल राजनीतिक मुद्दा ही बना पा रहे हैं।
आगे और क्या परिवर्तन होते हैं..? यह तो हमें देखना ही होगा। इसके लिए प्रतीक्षा तो करनी ही होगी। सब कुछ ठीक है, नहीं कह सकते, परंतु आशाओं पर आसमान टिका है, सो हमें आस नहीं छोडऩा कि सब कुछ ठीक हो जायेगा। हमारा गणतंत्र मजबूत होगा। मूल भावनओं का स्वरूप कितना भी बदले, अंतत: सकारात्मक उम्मीदों का तिरंगा फिर फहरायेगा। जय भारत, जय गणतंत्र।
– संजय सक्सेना