पंचायती राज तो देश में लागू कर दिया गया है, लेकिन जमीनी स्तर पर हालात आज भी बेहतर नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ग्रामीण सरपंचों और अधिकारियों के बीच के काम से जुड़े मामलों पर जो अहम टिप्पणी की है, वह गौर करने लायक है। शीर्ष अदालत ने जहां ब्यूरोक्रेट्स के बीच औपनिवेशिक मानसिकता को चिह्नित किया, वहीं अदालत का कहना था कि अधिकारी आदतन जमीनी स्तर के लोकतांत्रिक संस्थानों में निर्वाचित प्रतिनिधियों, विशेषकर महिलाओं पर हुक्म चलाने का प्रयास करते हैं। शीर्ष अदालत ने हिदायत दी है कि अधिकारियों को इसके बजाय शासन में महिलाओं की भागीदारी और नेतृत्व को प्रोत्साहित करना चाहिए।
पंचायती राज के अधिकारों से संबंधित एक प्रकरण में न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयां की पीठ ने चिंता के साथ कहा कि यह पंचायतों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के साथ किए जाने वाले व्यवहार का एक बार-बार दोहराया जाने वाला पैटर्न है। इसमें प्रशासनिक अधिकारी महिला सरपंचों के खिलाफ प्रतिशोध लेने के लिए पंचायत सदस्यों के साथ मिलीभगत करते हैं। देखा जाए तो यह बहुत गंभीर टिप्पणी है।
बेंच ने छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले की एक ग्राम पंचायत में महिला सरपंच सोनम लाकड़ा को बहाल करने का आदेश दिया। महिला सरपंच के खिलाफ भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के दौरान मामूली आधार पर कार्रवाई शुरू की गई थी। वहीं, विष्णु देव साय के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने उनका बचाव किया था।
बेंच ने 27 वर्षीय लकड़ा द्वारा किए गए विकास कार्यों की प्रशंसा की। बेंच ने कहा कि जनपद पंचायत के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने ऐसी परियोजनाओं के लिए आवश्यक समय के बारे में तकनीकी विशेषज्ञता की कमी के बावजूद 16 दिसंबर, 2022 को एक कार्य आदेश जारी किया। इसमें तीन महीने के भीतर विकास कार्य पूरा करने का आदेश दिया गया। यह आदेश लकड़ा को 21 मार्च, 2023 को दिया गया, विडंबना यह है कि तीन महीने की अवधि का आखिरी दिन था। काम के निष्पादन में देरी के लिए उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया गया, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया।
पीठ ने कहा कि उनके स्पष्टीकरण के बावजूद नौकरशाही की मनमानी के कारण उन्हें 18 जनवरी, 2024 को पद से हटा दिया गया। हाईकोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी थी। जस्टिस कांत और भुइयां ने उनके खिलाफ आरोपों को बेबुनियाद और उनके पद से हटाए जाने को जल्दबाजी वाला कदम बताया। पीठ ने कहा कि अपनी औपनिवेशिक मानसिकता के साथ प्रशासनिक अधिकारी एक बार फिर निर्वाचित जनप्रतिनिधि और चयनित लोक सेवक के बीच मूलभूत अंतर को पहचानने में विफल रहे हैं।
पीठ ने कहा कि अक्सर, लाकड़ा जैसे निर्वाचित प्रतिनिधियों को नौकरशाहों के अधीनस्थ माना जाता है। उन्हें ऐसे निर्देशों का पालन करने के लिए मजबूर किया जाता है जो उनकी स्वायत्तता का अतिक्रमण करते हैं। साथ ही उनकी जवाबदेही को प्रभावित करते हैं। यह गलत और स्वयंभू पर्यवेक्षी शक्ति निर्वाचित प्रतिनिधियों को नागरिक पदों पर आसीन लोक सेवकों के बराबर मानने के इरादे से लागू की जाती है, जो चुनाव द्वारा प्रदत्त लोकतांत्रिक वैधता की पूरी तरह से अवहेलना करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब देश आर्थिक महाशक्ति बनने की कोशिश कर रहा था, तब ऐसी घटनाएं नियमित रूप से हो रही थीं और इन्हें सामान्य माना जा रहा था। शीर्ष अदालत ने कहा कि प्रशासनिक अधिकारियों को उदाहरण पेश करना चाहिए, महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने और ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में महिलाओं के नेतृत्व वाली पहलों का समर्थन करने के प्रयास करने चाहिए। निर्वाचित पदों पर महिलाओं को हतोत्साहित करने वाले प्रतिगामी रवैये को अपनाने के बजाय, उन्हें ऐसा माहौल बनाना चाहिए जो शासन में उनकी भागीदारी और नेतृत्व को प्रोत्साहित करे।
देखा जाये तो यही हालात देश के अन्य राज्यों में भी हैं। मध्यप्रदेश भी इसमें शामिल है। केवल सरपंच ही नहीं, पंचायती राज के सभी प्रतिनिधियों की हालत भिखारियों जैसी दिखती है। विकास कार्यों की राशि के लिए उन्हें अधिकारियों की चौखट पर भीख जैसी ही मांगनी पड़ती है। इसके बाद भी राशि मिल जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं होती। प्रदेश की वर्तमान स्थिति यह है कि पिछले पांच सालों से जिला और जनपद पंचायत के सदस्यों के क्षेत्रों में विकास के लिए पैसे ही नहीं दिये गये। कागजों में राशि मंजूर होने के बाद भी न तो राशि जारी हुई और न ही कहीं कार्य शुरू हुए।
केवल पंचायती राज के प्रतिनिधि ही नहीं, जिला व जनपद पंचायतों में बैठे मुख्य कार्यपालन अधिकारियों के पास भी अधिकार नहीं। वे कलेक्टरों की दया पर निर्भर हैं। कुल मिलाकर हालत यह है कि पंचायती राज पर नौकरशाही का ग्रहण लगा हुआ है, यही बात सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी में भी साफ-साफ दिखाई देती है। इस पर सरकारों को भी ध्यान देना चाहिए।
– संजय सक्सेना
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