आखिर महाराष्ट्र में भी प्रचार का अंतिम दौर आ गया और अब मतदान के लिए मतदाताओं को प्रभावित करने की आखिरी कोशिशें शुरू हो गई हैं। देखा जाए तो पिछले कुछ चुनावों से तमाम पूर्वानुमान और विश्लेषण ध्वस्त हो रहे हैं और महाराष्ट्र के लिए तो स्थितियां और अधिक उलझी हुई रही हैं। चुनाव झारखंड में भी हो रहे हैं, लेकिन निगाहें सबकी महाराष्ट्र पर ही हैं। और महाराष्ट्र का माहौल कुछ ऐसा रहा है कि यह चुनाव अब तक का सबसे गहमागहमी के साथ ही बहुत भ्रमित करने वाला चुनाव भी हो गया है।
मराठा बाहुबली शरद पवार की भूमिका इस बार क्या होगी? और वो जिस खेमे में फिलहाल हैं, उसके अनुकूल परिणाम आएंगे या नहीं, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह आज भी माना जा रहा है कि शरद पवार इस बार भी कुछ अजूबा ही करेंगे। उनका राज्य की राजनीति में चार दशकों से दबदबा रहा है, फिर चाहे वे मुख्यमंत्री रहे हों या सत्ता के पीछे की शक्ति। दो बार वे विपक्ष में रहे। आज 83 की उम्र में उन्हें यह अहसास तो है कि शायद यह उनका आखिरी दांव है। देश की अर्थव्यवस्था के केंद्रबिंदु और सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों के मामले में भी दूसरे नंबर के राज्य में पवार के पास राजनीति की दिशा तय करने का यह आखिरी मौका है या था। वे अपनी विरासत और एनसीपी का भविष्य मजबूत करना चाहते हैं और इस दिशा में उनके प्रयास दिखाई भी दिये।
सीनियर पवार यह भी जानते हैं कि महाराष्ट्र के नतीजों से आने वाले महीनों में राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय होगी। अगर भाजपा का महायुति गठबंधन हारता है, तो इससे हरियाणा में उसकी हालिया जीत को तुक्का मान लिया जाएगा। साथ ही, उसके भविष्य पर वे सवाल फिर उठने लगेंगे, जो लोकसभा चुनाव के बाद उठे थे। दूसरी ओर, शरद पवार के प्रयासों के साथ, कांग्रेस और शिवसेना के उद्धव ठाकरे वाले गुट को मिलाकर बने महा विकास अघाड़ी (एमवीए) की जीत होती है, तो उससे न केवल इंडिया ब्लॉक मजबूत होगा, अपितु निश्चित तौर पर भारतीय राजनीति के महारथी और विपक्ष के रणनीतिकार के तौर पर पवार की छवि और मजबूत हो जाएगी।
साफ है। मराठा राजनेता के लिए बहुत कुछ दांव पर है, जिसका नाम महाराष्ट्र का पर्याय बन गया है। उम्र और स्वास्थ्य ने उन्हें शारीरिक रूप से भले धीमा कर दिया हो, पर दिमाग पहले जैसा ही तेज है। सही मायने में एमवीए उनके ही दिमाग की उपज थी। जब गठबंधन में रहते हुए 2019 का विधानसभा चुनाव जीतने के बावजूद, संयुक्त शिवसेना और भाजपा सरकार बनाने के लिए सहमति पर पहुंचने में विफल रहे, तो पवार ने एक जादूगर की तरह एमवीए को अपनी टोपी से बाहर निकाला था। उन्हें इसकी कीमत तीन साल बाद चुकानी पड़ी, जब भाजपा ने पहले एकनाथ शिंदे को अलग करके शिवसेना और फिर उनके भतीजे अजित पवार को अलग करके एनसीपी को ही तोड़ दिया।
सही मायने में यह शरद पवार के लिए बहुत बड़ा झटका था और तब से वे प्रतिशोध लेना चाह रहे थे। उन्हें लोकसभा चुनाव में मौका भी मिल गया। उन्होंने महायुति को हराने और महाराष्ट्र की 48 में से 30 सीटें जीतने में एमवीए की मदद की। महाराष्ट्र और यूपी में हार ने ही भाजपा को बहुमत के आंकड़े से नीचे ला दिया था और उसे गठबंधन सरकार बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। अब पवार दूसरे राउंड की तैयारी कर रहे हैं और उन्हें उम्मीद है कि यह भाजपा को महाराष्ट्र से बाहर करने का अंतिम दौर होगा।
यह देखने वाली बात है कि एमवीए में फैसले कौन ले रहा है। सीट बंटवारे के फॉर्मूले को लेकर उद्धव की शिवसेना और कांग्रेस के बीच अंत तक खींचतान चली। समझौता कराने के लिए शरद पवार को बुलाना पड़ा। उन्होंने न केवल समझौता कराया, बल्कि अपने लिए सीटों का बड़ा हिस्सा हासिल कर फायदा उठाने में भी सफल रहे। शरद पवार ने जो फॉर्मूला निकाला, वह गौर करने लायक है। पवार का मुख्य प्रभाव क्षेत्र पश्चिमी महाराष्ट्र का चीनी उत्पादक क्षेत्र है। इस क्षेत्र में विधानसभा की 70 सीटें हैं। लोकसभा चुनावों में, पवार ने केवल 10 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें उन 70 में से लगभग 65 विधानसभा सीटें आती हैं। एक चतुर राजनेता होने के नाते शरद पवार ने केवल उन निर्वाचन क्षेत्रों में लडऩे का विकल्प चुना, जहां उन्हें लगा कि भतीजे अजित पवार द्वारा उनकी पार्टी को बांटने के बावजूद वे जीत सकते हैं। हुआ भी यही।
महाराष्ट्र में बाकी पार्टियों की तुलना में पवार का स्ट्राइक रेट सबसे ज्यादा था। उन्होंने 10 में से 8 सीटें जीतीं। लोकसभा चुनाव के बाद से, उन्होंने अपनी पार्टी में सबकुछ ठीक करने के लिए कड़ी मेहनत की है। वे अजित के गुट के सात महत्वपूर्ण दलबदलुओं को वापस ले आए और बेटी सुप्रिया सुले, भतीजे रोहित और पोते युगेंद्र के बीच उत्तराधिकार को लेकर क्रम तय किया।
यही नहीं, उन्होंने आत्मविश्वास दिखाते हुए अपने परिवार के गढ़ बारामती में अजित के खिलाफ पोते युगेंद्र को मैदान में उतारा है। यह लंबे समय तक उनकी अपनी सीट रही है। अजित पवार की पार्टी विधानसभा चुनाव में 87 सीटों पर लडऩे के लिए तैयार है। इससे अजित को न केवल अपनी एनसीपी की पकड़ मजबूत बनाने का मौका मिलेगा, बल्कि विदर्भ व मराठवाड़ा समेत अन्य इलाकों में भी पंख फैलाने का मौका मिलेगा। लेकिन शरद पवार एमवीए की ओर से हर चाल सोच-समझकर चल रहे हैं।
एक बात और इस चुनाव के दौरान देखने को मिली। लोकसभा में बहन के हाथों पत्नी की पराजय से लगे झटके से अजित पवार उबर नहीं पाये, इधर अपने ही गठबंधन में उपेक्षित भी महसूस करने लगे। उनके हाल के बयानों ने उनकी पीड़ा ही नहीं, कहीं न कहीं काका पवार के प्रति मजबूरी वाला झुकाव भी प्रदर्शित किया है। भाजपा के बटेंगे तो कटेंगे वाले नारे को समर्थन न देना भी अजित की रणनीति का एक हिस्सा माना जा रहा है।
भाजपा की तरफ से महाराष्ट्र में सारी रणनीति गृहमंत्री अमित शाह ने ही बनाई और वही पूरे चुनाव को रिमोट से संचालित करते दिखाई दिये हैं। भाजपा भले ही गठबंधन के साथ चुनाव लड़ रही है, लेकिन उसके केंद्र बिंदु में पूर्व सीएम और वर्तमान उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ही रहे हैं। यहां तक कि केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी जैसा नेता चुनाव प्रचार के दौरान लगभग हाशिये पर ही रहा। उनकी इस बीच टिप्पणी भी आई। इधर, शिंदे शिवसेना के अंदर भी भाजपा के प्रति कई बार असंतोष देखने को मिला, लेकिन मामला सम्हाल लिया गया।
वैसे देखा जाये तो महाविकास अघाड़ी में भी शुरुआती दौर में मामला ठीक नहीं रहा। हरियाणा हार के बाद कांग्रेस कमजोर पड़ गई और इसके चलते सहयोगी दलों ने कांग्रेस को महाराष्ट्र में झुकने के लिए मजबूर कर दिया। इसमें भी शरद पवार को फायदा लेने का मौका मिल गया। सरकार किसकी बनेगी, यह अनुमान फिलहाल अच्छे-अच्छे राजनीतिक पंडित नहीं लगा पा रहे हैं। महाराष्ट्र की उलझी राजनीति में कब क्या उठापटक हो जाए, कोई नहीं कह सकता। यही बात परिणामों पर लागू होती है। मतदाताओं से लेकर प्रशासनिक प्रबंधन का जिस तरह से चुनावों में दौरान दबदबा देखा गया है, कुछ भी संभव है। लेकिन शरद पवार आज तक महाराष्ट्र की राजनीति के केंद्र बिंदु बने हुये हैं, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। कल क्या होगा, देखते हैं।
– संजय सक्सेना