Edirorial: विधानसभा सत्र और बैठकें

मध्यप्रदेश विधानसभा का शीतकालीन शत्र सोलह दिसंबर से शुरू हो रहा है। लेकिन इस सत्र के पहले ही यह मुद्दा उठने लगा है कि क्या विधानसभा के इस सत्र में जितनी बैठकें हो रही हैं, वो पर्याप्त हैं? क्या विधायकों को मुद्दे और सवाल उठाने का पर्याप्त मौका मिल पाता है? क्या जनहित के मुद्दों पर पर्याप्त चर्चा हो पाती है?
सही बात तो यह है कि राज्य के बजट तक पर जिस तरह से और जितनी चर्चा होना चाहिए, वह नहीं हो पाती है। कभी सत्र विरोध और हो-हल्ले की भेंट चढ़ जाता है तो कभी संबंधित विषयों पर उतना समय नहीं मिल पाता है, जितना चर्चा के लिए होना चाहिए। आज आये कुछ आंकड़ों को संदर्भ के तौर पर देखते हैं तो पता चलता है कि 1998 से लेकर जुलाई 2024 तक इन 26 सालों में बैठकों की संख्या 93 प्रतिशत घट गई है। ये भी पता चला कि सत्र के दौरान केवल 10 फीसदी विधायक ही सवाल पूछ पाते हैं। अभी जो शीतकालीन सत्र बुलाया गया है, वह केवल पांच दिन का होगा। इसमें किसे कितना मौका मिलेगा, नहीं कहा जा सकता। हां, राज्य का अनुपूरक बजट अवश्य पास हो जाएगा, भले ही उस पर चर्चा हो पाये या नहीं।
इस साल मप्र विधानसभा का बजट सत्र 1 जुलाई से शुरू हुआ था। वित्त मंत्री  ने 3 जुलाई को बजट पेश किया। दो दिन बाद 5 जुलाई को बजट सत्र खत्म हो गया। इस दौरान बजट भी पास हो गया और बिना चर्चा के 6 विधेयक भी पारित हो गए, जबकि सत्र की अवधि 14 दिनों की तय हुई थी। इसे 19 जुलाई तक चलना था। पहली बात तो ये कि बजट सत्र वैसे भी बहुत कम अवधि का तय किया गया था, दूसरे उसमें कुछ घोटालों के मुद्दे उठाये गये, जिनमें सरकार के मंत्रियों पर भी निशाना साधा गया। संभवत: इसी कारण अचानक पांच जुलाई की शाम को सत्र के चलते समय ही ऐलान कर दिया गया कि विधानसभा की कार्यवाही अनिश्चित काल के लिए स्थगित की जाती है।
ये तो केवल एक बानगी है। मप्र विधानसभा के सत्र में बैठकों की संख्या लगातार कम हो रही है। विधानसभा के इसी मानसून सत्र की बात करें तो इसमें प्रदेश में खुले नलकूप में इंसानों के गिरने से होने वाली दुर्घटनाओं की रोकथाम और सुरक्षा विधेयक 2024 पारित हुआ। इस विधेयक में नलकूप की ड्रिलिंग की जिम्मेदारी तय करने के साथ भूमि स्वामी और ड्रिलिंग एजेंसी पर कार्रवाई तय करने का प्रावधान है। साथ ही खुले बोरवेल में या नलकूप के खिलाफ की गई शिकायतों के समाधान के लिए किसी सरकारी अधिकारी को कार्रवाई करने का अधिकार दिया गया है। मगर, जब ये विधेयक विधानसभा के पटल पर रखा गया तो इस पर ज्यादा बहस नहीं हुई।
इसके बाद बजट की विभागीय अनुदान मांगों पर चर्चा नहीं हुई बल्कि सभी मांगों पर एक साथ चर्चा हुई। इस प्रक्रिया को गिलोटिन कहते हैं। जबकि होना यह चाहिये कि जब विभागीय अनुदान मांगों पर चर्चा हो, तो इसमें विधायक हिस्सा लें। चर्चा के दौरान वो संबंधित विभाग से जुड़ी अपने क्षेत्र की समस्याएं मंत्रियों के सामने रखते हैं। विभागीय मंत्री और अधिकारियों को भी मौका मिलता है अपने विभाग की उपलब्धि बताने का। इस बजट सत्र में जब विभागीय अनुदान मांगों पर एक साथ चर्चा हुई तो न विधायक को और न ही मंत्री को कुछ कहने का मौका मिला। ये लोकतंत्र के लिहाज से बिल्कुल ठीक नहीं है। इससे सबसे बड़ा नुकसान जनता का हो रहा है।
देखा जाए तो विधानसभा जनहित के मुद्दे उठाने का सबसे प्रभावी मंच है। इसे लोकतंत्र का मंदिर कहते हैं। यहां लोगों की बात नहीं रखी जाएगी तो कहां रखी जाए? उनका विधानसभा पर ही पहले से भरोसा कम हो गया है। विधानसभा की बैठकों की कम होती संख्या का मुद्दा कई बार पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में उठाया गया। एक सम्मेलन में सुझाव आया कि संसद में 100 दिन की बैठकें होना चाहिए और एमपी, यूपी, राजस्थान जैसी बड़ी विधानसभाओं के लिए 75 बैठकों का सुझाव दिया गया। ये सब तय तो हुआ, लेकिन इस पर अमल नहीं हो गया।  असल में सदन से संबंधित संविधान में तीन सत्र आहूत करने का प्रावधान है, लेकिन बैठकों को लेकर संविधान में कोई प्रावधान है। संविधान की इसी कमजोरी का फायदा उठाया जाता है।
जानकारी के अनुसार एक दिन के प्रश्नकाल पर औसतन 50 लाख रु. तक व्यय आता है। ये राशि विधानसभा की एक दिन की बाकी कार्यवाही के कुल खर्च से भी ज्यादा है, क्योंकि सदन की हर घंटे की कार्यवाही 2.50 लाख रु. की पड़ती है। यदि 5 घंटे सदन चला तो कुल खर्च 12.50 लाख तक आता है। वर्तमान विधानसभा में इस बार 230 में से 70 नए विधायक हैं। इनमें से कांग्रेस के 24, भारत आदिवासी पार्टी का एक और बीजेपी के 45 विधायक हैं। नए विधायक ज्यादा से ज्यादा सवाल करें इसके लिए विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष ने एक प्रयोग किया था। उन्होंने व्यवस्था बनाई थी कि सत्र में एक दिन ऐसा होगा जब प्रश्नकाल के दौरान केवल नए विधायक ही सवाल पूछेंगे। साल 2023 के बजट सत्र के दौरान 15 मार्च को ऐसा पहली बार किया भी गया था। लेकिन फिर बाद में ऐसा नहीं हुआ।
खुलकर भले ही न बोलें, लेकिन सत्तापक्ष के विधायक भी इस बात से सहमत हैं कि सत्र में बैठकों की संख्या ज्यादा हो और उन्हें भी अपनी बात कहने का मौका मिले। बजट-अनुदान मांगों पर तो उन्हें सरकार के पक्ष में ही बोलना होता है, अपने क्षेत्र से जुड़े मुद्दे उठाने का मौका नहीं मिल पाता। और, विपक्ष तो लगातार आरोप ही लगाता आ रहा है कि सरकार विधानसभा का उपयोग केवल बजट पास करने के लिए कर रही है, जनहित के मुद्दे नहीं उठने देना चाहती। सत्तापक्ष विपक्ष पर हंगामा करने के आरोप लगाकर इतिश्री कर लेता है। जबकि सदन चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की होती है। फिलहाल जो भी हो रहा है, जनता केवल मूकदर्शन बनी हुई है।
– संजय सक्सेना

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