Editorial: राहुल गांधी का लेख और व्यापक बहस की जरूरत…!

देश के कॉरपोरेट और सरकार के बीच बनने वाले समीकरण हमारी आर्थिक नीति के संचालन का आधार होते हैं। इस विषय पर अर्थशास्त्री तो लिखते रहते  हैं, चर्चा करते रहते हैं, पर नेता लोग इस पर खुलकर बोलने या लिखने से बचते हैं। परंतु विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने इस मसले को छेड़ दिया है, तो इस पर राजनीतिक पक्ष-विपक्ष से हटकर व्यापक बहस होने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है।
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने एक्स पर अपना लेख साझा करते हुए लिखा कि अपना भारत चुनें निष्पक्ष खेल या एकाधिकार? नौकरियां या कुलीनतंत्र? योग्यता या रिश्ते? नवाचार या डरा-धमकाना? बहुतों के लिए धन या कुछ चुनिंदा लोगों के लिए? मैं इस बारे में लिख रहा हूं कि व्यापार के लिए एक नया समझौता सिर्फ एक विकल्प नहीं है, यह भारत का भविष्य है। राहुल गांधी ने लेख लिखा कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को चुप करा दीया था। यह अपने व्यापारिक कौशल से नहीं, बल्कि अपने दबदबे से चुप कराया गया था। कंपनी ने हमारे अधिक लचीले महाराजाओं और नवाबों के साथ साझेदारी करके, रिश्वत देकर और धमकाकर भारत का गला घोंटा। इसने हमारे बैंकिंग, नौकरशाही और सूचना नेटवर्क को नियंत्रित किया। हमने अपनी आजादी किसी अन्य राष्ट्र से नहीं खोई; हमने इसे एक एकाधिकारवादी निगम से खो दिया,  जिसने एक जबरदस्ती तंत्र चलाया।
राहुल गांधी का मुख्य तर्क यह है कि आर्थिक धरातल पर सभी खिलाडिय़ों और सभी टीमों के लिए समान मौकों के नियम का पालन करने के बजाय तरह-तरह से पक्षपात हो रहा है, मैच फिक्सिंग की जा रही है। इसके कारण कॉरपोरेट जगत में असंतोष है, बेचैनी है, और कुल मिलाकर सरकारी समर्थन का लाभ उठाकर अपनी मोनोपॉली कायम करने वाली गिनी-चुनी कॉरपोरेट ताकतों को छोडक़र बाकी स्वयं को शोषित और वंचित जैसा महसूस कर रहे हैं। यह सरकारी रवैया भारत की समृद्धि के रास्ते में रोड़ा है। राहुल गांधी दावा कर रहे हैं कि उनकी राजनीति सरकार द्वारा प्रोत्साहित इस मोनोपॉली का विरोध करने वाली है। उसका उद्देश्य सभी उद्योगपतियों को अर्थनीति में समान धरातल मुहैया कराना है।
संसद में विपक्ष के नेता की तरफ से लगाया गया यह एक बेहद गंभीर आरोप है। इसका तो सरकार की तरफ से बाकायदा अधिकृत जवाब आना चाहिए। मोदी सरकार के साथ नजदीकी तौर पर काम करते रहे दो अर्थशास्त्रियों प्रोफेसर विरल आचार्य और अरविंद सुब्रह्मण्यम ने भी जो विचार व्यक्त किये हैं, उन पर भी  सरकार की तरफ से जवाब या कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। विरल आचार्य दो साल तक रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर रहे, और सुब्रमण्यम मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं।
संदर्भ के अनुसार विरल आचार्य ने अपने लेख में देश के पांच बड़े औद्योगिक घरानों अदाणी, अंबानी, टाटा, भारती एयरटेल और आदित्य बिड़ला समूह को नेशनल चैम्पियन की संज्ञा दी है। यह मोनोपॉली वाले पूंजीपतियों के लिए नया नाम है। उनका कहना है कि अर्थव्यवस्था के मैदान में ये पांच कॉरपोरेट समूह ही खेल रहे हैं और खेल के सारे नियम इनके लाभार्थ ही बनाए जाते हैं। इनकी ्राइसिंग पावर जबरदस्त है। विरल आचार्य ने यह भी कहा है कि ये पांच नेशनल चैम्पियन देश के अन्य बड़े छह से दस नंबर के उद्योग-व्यापार घरानों की कीमत पर बढ़ रहे हैं।
इसी तरह कुछ दिन पहले अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रह्मण्यम ने लिखा कि भारत में निजी क्षेत्र निवेश के लिए अपनी तिजोरी क्यों नहीं खोलता। हम जानते हैं कि भारत के निजी क्षेत्र के पास कम से कम दो लाख करोड़ की रकम न जाने कब से पड़ी हुई है, पर वह उसे अर्थव्यवस्था में लगाना नहीं चाहता। निवेश की जिम्मेदारी केवल सरकार की रह गई है। वही आधारभूत सुविधाओं के क्षेत्र में पैसा लगाती है। निजी क्षेत्र मैन्यूफैक्चरिंग और अन्य क्षेत्रों में नया निवेश नहीं करता। सुब्रह्मण्यम का कहना है कि उद्योगपति डरे हुए हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे नया पैसा लगाएंगे तो सरकार की तरफ से उन्हें नीतिगत और संस्थागत समर्थन नहीं मिलेगा।
राहुल गांधी ने जो लिखा, वह गाहे-बगाहे अपने भाषणों और बयानों के माध्यम से बोलते रहते हैं, लेकिन लेख के रूप में संभावत: किसी वरिष्ठ राजनेता की ओर से पहली बार ही लिखा गया होगा। परंतु वह लोकसभा में विपक्ष के नेता  हैं, इसलिए इसे हलके में नहीं लिया जा सकता। इसके साथ ही भाषा भले ही कुछ भी हो, लगभग इसी तरह के विचार अरविंद सुब्रमण्यम और विरल आचार्य भी अप्रत्यक्ष तौर पर कह चुके हैं। हमारी अर्थव्यवस्था ऊपरी तौर पर तो बहुत तेजी से बढ़ती हुई दिखाई दे रही है, लेकिन उसका गंभीरता से विश्लेषण करते हैं तो घबराहट होने लगती है। देश में आर्थिक स्तर पर विभाजन और बढ़ती खाइयां दिखने लगती हैं। आम आदमी और गिने-चुने अमीरों की सम्पत्ति तथा आय के तुलनात्मक आंकड़े भी भयावह हैं। इसलिए कहीं न कहीं ऐसी ठोस रणनीति की आवश्यकता तो है, जिससे हमारी अर्थव्यवस्था कम से कम ताश के पत्तों की तरह तो न बिखरे।
– संजय सक्सेना

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