Court: देर से मिला न्याय…? 37 साल पुराने भ्रष्टाचार के मामले में आरोपी को बरी किया

नई दिल्ली। एक कहावत है कि देरी से मिला न्याय, न्याय नहीं है। हाल ही में कोर्ट के एक आदेश में यह कहावत बिल्कुल मुफीद बैठ गई। 12 जुलाई को स्पेशल जज अनिल अंतिल ने 37 साल पुराने भ्रष्टाचार के मामले में आरोपी को बरी कर दिया। फैसला सुनाते हुए उन्होंने कहा कि न्याय व्यवस्था में किसी भी पक्षकार या एजेंसी की देरी, चाहे वह जांच एजेंसी हो या आरोपी द्वारा अपनाई गई गलत तरकीबें, न सिर्फ सही फैसला देने में रुकावट बनती है, बल्कि ये देरी न्याय दिलाने की कोशिशों पर भी घातक चोट करती है।
यह मामला 1987 का है, जब सीबीआई ने आईएएस अधिकारी सुरेन्द्र सिंह अहलूवालिया (तत्कालीन मुख्य सचिव, नगालैंड) और तीन अन्य लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की थी। इनमें बैंक ऑफ बड़ौदा, कोयम्बटूर के मैनेजर वी भास्करण, अहलूवालिया के भाई और कोहिमा में बैंक ऑफ बड़ौदा के मैनेजर इंद्रजीत सिंह और न्यामो लोथा शामिल थे। इन पर धोखाधड़ी, सबूत मिटाने, भ्रष्टाचार और अन्य अपराधों के आरोप थे।
उन पर आरोप था कि जुलाई 1969 से मार्च 1987 के बीच, अहलूवालिया (जो 1964 से 1969 तक भारतीय सेना में भी थे) ने भ्रष्ट और गैरकानूनी तरीकों से 67.9 लाख रुपये जमा किए। इन आरोपियों में से, अहलूवालिया को उनकी मानसिक स्थिति के कारण मुकदमे के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था, भास्करण गवाह बन गए और उन्हें 1996 में माफी दे दी गई थी, इंद्रजीत को इसी साल 12 जुलाई को बरी कर दिया गया था और न्यामो लोथा की 1991 में मृत्यु हो गई।
अदालत ने माना कि अभियोजन पक्ष अपने मामले को साबित करने में विफल रहा। अदालत ने कहा कि यह मामला न सिर्फ लंबे समय तक चलने वाले मुकदमे बल्कि जांच एजेंसी की जानबूझकर की गई लापरवाही और ढीली जांच के कारण भी न्याय के लिए एक “क्लासिक उदाहरण” बन गया है। अदालत ने पाया कि पहले दिन से ही, जांच एजेंसी का इरादा कभी भी मामले को उसके तार्किक निष्कर्ष तक ले जाने का नहीं था।

अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष ने 327 गवाहों को पेश किया था, जिनमें से 48 को होटल और गेस्ट हाउस में रहने वाला बताया गया था। जाहिर है, जांच एजेंसी को पता था कि ये गवाह अदालत में पेश नहीं हो पाएंगे। वहीं, 200 से ज्यादा गवाहों की तो मौत हो चुकी थी, उनका पता बदल चुका था या बीमारी के कारण वे बयान देने में असमर्थ थे। नतीजा ये हुआ कि 1992 में मुकदमे की शुरुआत से लेकर लंबी अविध तक सिर्फ 87 गवाहों के ही बयान दर्ज हो सके। इसी दौरान, करीब 90 साल के हो चुके अहलूवालिया की मानसिक स्थिति अस्थिर और खराब हो गई और उन्हें मुकदमे का सामना करने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया।
मामला मई 1997 में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा 2000 तक रोक दिया गया था। 2008 में, हाईकोर्ट ने निचली अदालत के रिकॉर्ड मांगे, जो उन्हें 2009 में मिले। अदालत ने कहा कि दिसंबर 2000 में आरोपों पर बहस/विचार शुरू हुआ और आरोप तभी फरवरी 2008 में तय किए गए, बीच का समय आरोपियों द्वारा दायर की गई विभिन्न अर्जियों में लगा। 2019 में, दिल्ली की एक अदालत ने सीबीआई के एक मामले में अहलूवालिया को हथियार और गोला-बारूद रखने का दोषी पाया और उन्हें पांच साल के कारावास की सजा सुनाई और 1.5 लाख रुपये का जुर्माना लगाया था। हालांकि, एक अन्य अदालत ने उनकी सजा और फैसले के खिलाफ उनकी अपील को स्वीकार कर लिया था।

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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