मुंबई । लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections 2024) के दौरान हर पार्टी जीत के बड़े-बड़े दावे कर रही है. कांग्रेस इस बार बड़े बदलाव का संकेत दे रही है. वहीं, भारतीय जनता पार्टी 400 पार का नारा दे रही है. हालांकि, गठबंधन के वरिष्ठ नेता छगन भुजबल का कहना है कि महाराष्ट्र में एनडीए के लिए यह उतना आसान नहीं होगा, जितना 2014 और 2019 में हुआ था, जब उसने 48 में से 41 लोकसभा सीटें जीती थीं, क्योंकि इस बार उद्धव ठाकरे और शरद पवार के पक्ष में सहानुभूति की लहर है. एनडीटीवी को दिये एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में भुजबल ने नासिक लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने से पीछे हटने के अपने फैसले पर भी खुलकर बात की… उन्होंने इस बात पर अपने विचार साझा किए कि क्या 400 सीटें जीतने के लिए एनडीए का नारा- ‘अब की बार 400 पार’, संविधान में संशोधन के आरोपों के बीच सफल हो पाएगा?
शिवसेना-राकांपा में एक जैसी पटकथा
महाराष्ट्र की पहले से ही दिलचस्प राजनीति 2022 में और अधिक जटिल हो गई, जब एकनाथ शिंदे और विधायकों के एक समूह ने बगावत कर दी, जिसके कारण उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाविकास अघाड़ी सरकार गिर गई. एकनाथ शिंदे ने भाजपा के साथ गठबंधन किया और मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, जिससे उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना दो भागों में विभाजित हो गई. एक साल बाद, शरद पवार के नेतृत्व वाली राकांपा में भी ऐसी ही पटकथा लिखी गई, जब उनके भतीजे अजीत पवार ने पार्टी को विभाजित कर दिया और भाजपा के साथ हाथ मिला लिया. इसके बाद अजीत पवार उपमुख्यमंत्री बन गए. इस प्रकार, महाराष्ट्र के राजनीतिक परिदृश्य में अब दो शिवसेना और दो एनसीपी (बहुत समान लेकिन अलग-अलग नामों के तहत) एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हैं.
एक सहानुभूति की लहर है…
जब छगन भुजबल, जो अजीत पवार के साथ राकांपा में विद्रोह में सबसे आगे थे, उनसे मौजूदा लोकसभा चुनावों में इसके प्रभाव के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा, “मेरा मानना है कि एक सहानुभूति की लहर है, जिस तरह से उद्धव ठाकरे की शिवसेना विभाजित हो गई और एनसीपी के एक गुट ने पाला बदल लिया. ऐसा उनकी रैलियों में दिख रहा है कि वे 2014 और 2019 की तरह विफल हो रहे
सुप्रिया सुले और सुनेत्रा को आमने-सामने नहीं…
महाराष्ट्र के मंत्री उस समय थोड़े भावुक हो गए, जब उनसे शरद पवार के गढ़ बारामती में उनकी बेटी सुप्रिया सुले और अजित पवार की पत्नी सुनेत्रा के बीच मुकाबले के बारे में पूछा गया. उन्होंने कहा, “यहां तक कि मेरे लिए भी यह दुखद है कि जो लोग इतने सालों तक एक ही घर में एक साथ रहते हैं… जो हो रहा है वह कुछ ऐसा है जो कई लोगों को पसंद नहीं आ रहा है. गलती किसकी है, यह अलग बात है… लेकिन अगर ऐसा नहीं होता, तो बहुत अच्छा होता.”
एनडीए को नुकसान पहुंचा रहा नारा…?
विपक्ष के इस आरोप पर कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी कहा कि एनडीए 400 सीटें मांग रहा है, क्योंकि वह संविधान में संशोधन करना चाहता है और क्या “अब की बार 400 पार” नारे ने एनडीए गठबंधन को नुकसान पहुंचाया है? भुजबल ने कहा, “इस पर विपक्ष का अभियान जोरदार रहा है. लोगों को लगता है कि यह नारा संविधान बदलने के बारे में है और कर्नाटक में एक भाजपा सांसद (अनंतकुमार हेगड़े) ने भी यह बात कही थी. हालांकि, पीएम मोदी कई बार कह चुके हैं कि संविधान मजबूत है और इसे खुद बीआर अंबेडकर भी नहीं बदल सकते, लेकिन लोगों को यह संदेश दिया जा रहा है. हालांकि, असर तभी दिखेगा जब मतपेटियां खुलेंगी.” उसने जोड़ा।
चुनावी रण में वापसी
नासिक सबसे विवादास्पद निर्वाचन क्षेत्रों में से एक रहा है, क्योंकि भाजपा, एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजीत पवार की राकांपा सीट-बंटवारे की व्यवस्था पर काम करने की कोशिश कर रहे हैं और भुजबल शुक्रवार को टिकट की दौड़ से बाहर हो गए. उम्मीदवार की घोषणा अभी होनी बाकी है और सहयोगियों के बीच खींचतान चल रही है, भाजपा नेता पंकजा मुंडे और मुख्यमंत्री शिंदे द्वारा परस्पर विरोधी टिप्पणियां की जा रही हैं. इस पर भुजबल ने कहा कि उन्होंने टिकट नहीं मांगा था, लेकिन होली के दौरान राकांपा के अन्य नेताओं ने उन्हें बताया था कि वह नासिक से चुनाव लड़ेंगे. उन्होंने कहा, “यह बात उन्हें दिल्ली में सहयोगियों के बीच देर रात हुई बैठक के बाद बताई गई, जहां प्रत्येक पार्टी के लिए ब्लॉक के बजाय एक-एक करके सीटों पर चर्चा की जा रही थी.”
छगन भुजबल ने कहा कि शिंदे भी शिवसेना के लिए सीट चाहते थे और वह चुनाव लड़ने के लिए सहमत हुए, क्योंकि नासिक उनका आधार है और वह और उनका बेटा वहां से विधायक रहे हैं. उनके भतीजे समीर भुजबल भी इस सीट से सांसद थे. यह कहते हुए कि उनके द्वारा किए गए विकास कार्यों के कारण उन्हें लोगों से बहुत समर्थन मिला, भुजबल ने कहा कि वह आश्चर्यचकित थे, क्योंकि तीन सप्ताह तक सीट से उनका नाम घोषित नहीं किया गया था. उन्हें याद आया, “जब नारायण राणे का नाम भी घोषित किया गया (रत्नागिरी-सिंधुदुर्ग के लिए) और मेरा नहीं, तो मुझे लगा कि वे ऐसा नहीं करना चाहते हैं. तब मैंने कहा कि मैं सीट से नहीं लड़ना चाहता. अगर मुझे लड़ना है तो मैं सम्मान के साथ चुनाव लड़ना चाहता हूं. मैं अपनी हैसियत जानता हूं. मुझे टिकट मांगना पसंद नहीं है. मैंने एकमात्र बार 1970 में मुंबई नगर निगम के लिए टिकट मांगा था. इसके बाद मैं टिकट वितरण में भी शामिल रहा. इसलिए मैंने सोचा कि इतने लंबे समय तक इंतजार करना मेरे लिए ठीक नहीं है. मुझे बुरा लगा और मैंने चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया.”