BHOPAL…भोपाल के कुछ संजीदा अफसाने और फसाने…
फक्कड़ हुए तो भी जिंदादिली से जीते रहे…

अलीम बजमी
भोपाल यानी उर्दू का गहवारा (नर्सरी)।यहां की फिजा में शायरों से जुड़े कई अफसाने है। गोशे-गोशे में दास्ताने हैं। फसाने भी सुनने को मिलेंगे।इनमें कुछ ने बॉलीवुड में अपने फन का जौहर दिखाया लेकिन फक्कड़ और तुनक मिजाज होने से वे वहां ज्यादा दिन ठहर नहीं सके। कुछ को जिंदगी की तल्खी, रंजो -ओ- गम  ने अलग रंग दे दिया।
इश्क में मिली मायूसी कम न थी कि चौखट पर खड़ी गुरबत, नाम-ओ-इकराम की कमी ने इन्हें तोड़ दिया। ऐसे में कश्मीर की शादाबी चेहरे पर रखने वाले इंकलाबी हो गए। शायरी ने आतिशी रंग अख्तियार कर लिया। हर मोड़ पर मिले दर्द को भूलने की दवा की खातिर कुछ ने मयखाने से रिश्ता जोड़ लिया। वो भी ऐसा कि मय का रुझान परस्तिश में तब्दील हो गया। इसका असर उनके कलाम में भी नजर आया। ऐसे में जानिए भोपाल चुनिंदा शायरों से जुड़ी कुछ रोचक बातें।
फ्लाइट में सिर्फ दो पैग मिलेंगे
ये सुनकर बगदाद नहीं गए
सबसे पहले बात ख्यातिलब्ध शायर कैफ भोपाली की। वे हमेशा मय के रंग में रहते। लेकिन बेजोड़ कलाम कहते। उनके कद्रदानों में अफसाना निगार कुर्रतुल हैदर भी थीं। उनकी सिफारिश पर बगदाद के एक मुशायरे में शिरकत के लिए कैफ साहब को बुलावा आया। वे बगदाद जाने की गरज से एयरपोर्ट पहुंचे तो फ्लाइट के इंतजार में उनकी नजर शराब की दुकान पर पड़ी। आयोजकों से उन्होंने पिलाने की फरमाइश कर दी। उन्हें बताया गया कि फ्लाइट में मिलेगी तो उन्होंने कहा कि कितनी, जवाब मिला सिर्फ दो पैग। ये सुनकर वे मायूस हो गए और मुशायरे में शिरकत करने के बदले वे एयरपोर्ट से सीधे मयखाने पहुंच गए। ऐसा ही एक अन्य वाक्या बुजुर्ग शायर युनूस फरहत ने सुनाया। लखनऊ के एक मुशायरे में कैफ ने आयोजकों से पूछा, क्या इंतजाम है? उन्हें बताया गया कि आज ड्राई-डे है। ये सुनकर उन्होंने महफिल में मौजूद एक्साइज कमिश्नर की तरफ इशारा करते हुए कहा कि वे इंतजाम कर देंगे। जवाब में कमिश्नर ने कहा कि अभी छोड़िए। कल नहला देंगे। ये सुनकर कैफ आजिजी से बोले- नहला तो कल देना, अभी वुजू तो करा दीजिए।  उनकी एक गजल के शेर… गुल से लिपटी हुई तितली को गिराकर देखो, आंधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा। आग का क्या है पल दो पल में लगती है, बुझते-बुझते एक जमाना लगता है। इस कलाम ने उन्हें  उर्दू अदब में मकबूल कर दिया।
मय के शौक से होटल हुआ
बंद, पीने की लत पी गई
अब बात शायर ताज भोपाली की। दरवेश मिजाज, मामूली सी शक्ल-ओ-सूरत। लेकिन शायरी आतिशी। उनका कलाम भी दूसरे शायरों से अलहदा रहा। शायरी के शौक में इब्राहीमपुरा स्थित अहद होटल कुछ अर्से में बंद हो गया। वजह भी साफ थी कि होटल से जो आमदनी होती, वो दोस्तों की खातिर मयखाने की नजर हो जाती। फिल्मी गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी की सलाह पर वे मुंबई पहुंच गए। फिल्म निर्माता एसएम सागर ने उन्हें अपने यहां रहने का इंतजाम कर दिया। लेकिन मखमली नर्म गद्दे पर सोना उन्हें कुबूल नहीं था। आदत तख्त पर सोने की थी। वहीं, फिल्मी चकाचौंध में वे खुद को बांधे नहीं रख सके। ऐसे में उनका दिल उचट गया। वे भोपाल लौट आए। हालांकि आंसू बन गए फूल फिल्म  में गाने लिखे। बकौल शायर युनूस फरहत के बदकिस्मती से खुद को संभाल न सके। ताज को पीने की लत ही पी गई। उन्होंने मासूम, मजलूमों का दर्द अपनी शायरी में इस तरह एक गजल में बयां किया कि… तुम्हें कुछ भी नहीं मालूम लोगों, फरिश्तों की तरह मासूम लोगों। पीछे बंधे हैं हाथ मगर शर्त है सफर, किससे कहें कि पांव के कांटे निकाल दें।
हूटिंग से बचने गर्मी में कोट पहना
जेबों में पत्थर रखकर कलाम पढ़ा
मेहफूज मंजर भोपाल के ऐसे शायर थे, जो हकलाते बहुत थे। इस कारण उनकी मुशायरों में हूटिंग होती थी। हांलाकि आसान लफ्जों में वे अपनी बात कहते थे। लेकिन हकलाट के कारण शेर कहने में उन्हें काफी वक्त लगता था। एक बार गर्मियों के मौसम में हुए एक मुशायरे में फौजियों की तरह लांग कोट पहनकर पहुंचे तो नौजवानों ने उनको हूट करना चालू कर दिया। ऐसे में उन्होंने जेब में रखे पत्थर हाथों में लेकर सबको चेताते हुए बोले-अब किसी ने हूट किया तो यहीं से गटा (पत्थर) मारुंगा। उनके तेवर देखकर महफिल में सन्नाटा छा गया। उनका एक मशहूर शेर… सदियों का नशा पिघला तो हर जर्रा नई तनवीर लिए,आंखों का नशा आरिज (गाल) की शफ्क जुल्फों के जमाने भूले।
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
हिंदी कवि दुष्यंत कुमार त्यागी की एक पहचान गजलकार की भी है। आपातकाल में उनका कलाम नौजवानों की जुबान पर चढ़ गया। खास तौर पर कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबीअ’त से उछालो यारों जैसी पंक्तियों से असंतोष, अन्याय, अनाचार, अत्याचार आदि के खिलाफ युवाओं के सुर फूटे। अंसतोष ने आक्रोश को स्वर दे दिया। मकसद हंगामा खड़ा करना नहीं, बल्कि देश और समाज की तस्वीर बदलना था।
बच्चन परिवार से नजदीकी
वे पहले ऐसे कवि थे, जिन्होंने अमिताभ बच्चन के बड़े अभिनेता बनने की भविष्यवाणी बच्चन को लिखे एक पत्र में की थी। डॉ. हरिवंश राय बच्चन से नजदीकी परिचय रखने वाले दुष्यंत कुमार ने  फिल्म जंजीर देखकर ये पत्र लिखा था। उनके नाम से भोपाल के शिवाजी नगर स्थित संग्रहालय में बच्चन परिवार से हुए उनके पत्र रखे हैं।
असंसदीय शेर कहने वाले भी रहे
मियां चिरकीन और मियां ढेढ़स को गुजरे लंबा वक्त हो गया। लेकिन दोनों से जुड़े किस्से और उनकी शायरी भोपालियों को अब भी याद है। दोनों में एक समानता थी कि शायरी को मेहबूबा की जुल्फों और मयखाने से निकालकर आम आदमी की आवाज बनाया। अमूमन दोनों को मुशायरे में नहीं बुलाने पर भी वह पहुंच जाते। अपना कलाम जरूर सुनाते। कलाम सुनाते वक्त उन्हें मालूम रहता कि भागना होगा। इसके पहले ये नौबत आए, खुद ही चप्पलें, जूते बगल में छुपा लेते। दरअसल दोनों बागी तेवरों के शायर थे लेकिन भाषा संसदीय और मर्यादित नहीं होती थी। दोनों भोपाल रियासत में मुलाजिम थे, दोनों में एक चीज कामन थी कि  नौकरी से हटाए जाने के बाद दोनों को चेतावनी देकर फिर नौकर रख लिया जाता था। 
काहिल क्लब… अंगारों से दरी, चादर जल गई लेकिन किसी ने उसे नहीं बुझाया
अब थोड़ा प्लैश बैक में चले। भोपाल में एक क्लब था। इसे  काहिल क्लब के नाम से जाना गया । इसको लेकर कई किस्से और कहानियां हैं। इसे आप भोपाली आलसियों का क्लब भी कह सकते हैं। ये कई मायनों में अनूठा था। ऐसा क्लब देश में कहीं ओर होने की जानकारी नहीं हैं। क्लब का गठन वर्ष 1932-33 में हुआ। उस वक्त भोपाल रियासत  का दौर था। आबादी तकरीबन 40 हजार से भी कम थी। क्लब के सदस्य अमूमन शायर थे। इनके अलावा चुनिंदा काश्तकार, कारोबारी और सियासत से रिश्ता रखने वाले मनोरंजन की गरज से यहां की महफिल में दिखाई देते थे। उस दौर में भोपालियों की पहचान बेफिक्र और तफरीह पसंदों की शक्ल में होती थी। यहां घर-घर में शेरो-शायरी की महफिलें हुआ करती थीं और अगर कुछ न होता था तो पटिये तो आबाद रहते ही थे। पटियों पर भी देश-दुनिया से जुड़े विषय चर्चा में शामिल रहते थे।
हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं
ऐसे कई शेर लिखने वाले मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी साहब का शायरी के सिलसिले में भोपाल आना-जाना लगा रहता था। यहां की बेफिक्र-बेपरवाह महफिलों को देख एक दिन जिगर साहब को शरारत सूझी। उन्होंने राय दी कि क्यों ना एक ‘काहिलों की अंजुमन’ (आलसियों की संस्था) बनाई जाए। मौजूद लोगों ने जिगर साहब की राय पर रजामंदी की मुहर लगा दी। महफिल में शामिल जौहर कुरैशी ने एक मकान का एक हिस्सा इसके लिए खुलवा दिया। फिर इसका नाम तय हुआ ‘दार-उल-कोहला’ यानी आलसियों का क्लब। अरबी में ‘दार-उल’ स्कूल को और ‘कोहला’ आलसी को कहा जाता है।
इतना ही नहीं, इस क्लब के कायदे-कानून भी तय हुए। यहां रात के तीन बजे तक रह-रहकर ठहाकों की आवाज़ सुनाई देती। शेर-ओ-शायरी के साथ लतीफेबाजी से महफिल गुलजार रहती। हुक्के की गुड़गुड़ की आवाज़ तो आम थीं। दीवारों पर पीक के निशां लोगों के आलसी मिजाज को जाहिर करने के लिए काफी थे।  अब क्लब के कानून को भी जान लीजिए…मेंबरशिप फीस की शक्ल सिर्फ एक तकिया थी। यहां दाखिल होने वाले को पहले ये तय करना होता था कि वे किसी के आलस में बाधा नहीं बनेगा। क्लब में हरेक मेंबर को रोजाना हाजिरी देनी होगी। चाहे मौसम कैसा भी रहे। क्लब में सोने पर पाबंदी थी। सभी मेम्बरों को  झुककर दाखिल होने की बंदिश रही। यहां तय था कि मेम्बरों को जो भी काम करना है, लेटे हुए करेंगे। इस कायदे को जिसने तोड़ा तो उसे सजा दी जाएगी।
सजा में भी अपनापन शामिल रहा। यानी कि उसे सभी मेम्बरों के चाय-नाश्ते की खातिरदारी करना पड़ती। पान खिलाने और हुक्का का इंतजाम भी इसमें शामिल रहता। क्लब में शेर-ओ-शायरी से लेकर अन्य गतिविधियों का सिलसिला 9 बजे से शुरू होकर रात के2- 3 बजे तक चलता। आलस यानी लेजीनेस की इंतहा तो ये थी कि एक बार एक बुजुर्ग हुक्का पी रहे थे, अंगारों से दरी-चादर-तकिए जलने लगे, तब भी लेटे हुए मेम्बरान ने उठने की जहमत नहीं की। क्लब के अध्यक्ष खुद जिगर मुरादाबादी साहब थे। महमूद अली खां इसके सेक्रेटरी थे। खान शाकिर अली खां, शेरी भोपाली, बासित भोपाली जैसी शख्सियतें इसकी  मेंबर रही। श्याम मुंशी ने अपनी किताब ‘सिर्फ नक्शे कदम रह गए’ में भी इसके बारे में लिखा है। अंत में जिगर मुरादाबादी का एक शेर….
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था।
–  अलीम बजमी की वाल से साभार

Exit mobile version