फिल्म की दो प्रमुख वजहें, नाना पाटेकर का अभिनय और फैमिली के लिए परफेक्ट कहानी
Vanvaas Review: इस तरह की फिल्में अब नहीं बनती, कंटेंट जरूरत से ज्यादा आगे बढ़ गया है. ऐसी फिल्मों को हम भूल गए हैं लेकिन ये भी सही है कि मोबाइल और सोशल मीडिया के दौर में हम अपनी फैमिली से भी दूर हुए हैं. ये फिल्म भले थोड़ा ओल्ड स्कूल है, भले इसमें थोड़ा मेलोड्रामा है लेकिन ये एक बहुत जरूरी काम करती है. आपको अपने परिवार के करीब के जाती है, आपको परिवार की अहमियत बताती है. एक सीन में जब परितोष त्रिपाठी अपने पिता बने नाना पाटेकर की तस्वीर पर माला चढ़ाते हैं और कहते हैं कि बाबूजी अब नहीं रहे तो आपका दिल रोता है क्योंकि बाबूजी तो जिंदा हैं. रिश्ते मर चुके हैं और ये फिल्म आज के दौर के उन्हीं मरे हुए रिश्तों को जिंदा करती है.
कहानी
नाना पाटेकर के 3 बेटे हैं, जो अपने पुश्तैनी घर को बेचना चाहते हैं. लेकिन नाना ऐसा नहीं चाहते क्योंकि यहां उनकी पत्नी की यादें बसती हैं. उनके बेटे उन्हें बनारस छोड़ आते हैं और वापस आकर सबसे कहते हैं कि वो नहीं रहे. नाना को भूलने की बीमारी है इसलिए उन्हें अपना नाम, घर का पता कुछ याद नहीं. उन्हें यहां वीरू यानी उत्कर्ष मिलते हैं, फिर क्या होता है, ये आपको थिएटर जाकर देखना होगा.
कैसी है फिल्म
ये फिल्म आपको रिश्तों की अहमियत बताती है, थोड़ी लंबी है, थोड़ा ड्रामा ज्यादा दिखाया गया है लेकिन फिर भी ये आपको काफी कुछ महसूस कर जाती है. नाना पाटेकर स्क्रीन पर जादू कर देते हैं और आप उस जादू में खोकर इस फिल्म की कमियों को नजरअंदाज कर देते हैं. ये फिल्म आज के दौर की नहीं लगती, ऐसा लगता ये 20 साल पहले आती लेकिन शायद आज के दौर में ऐसी फिल्म की जरूरत भी है. थोड़ी छोटी होती तो और असरदार होती लेकिन असर ये तब भी छोड़ती है और ये असर होना भी चाहिए.
एक्टिंग
नाना पाटेकर कमाल हैं, वो दीपक त्यागी के इस किरदार को जी गए हैं. उनकी आंखें, उनकी आवाज आपको बहुत कुछ महसूस कर जाती है. वो इस फिल्म को देखने की सबसे बड़ी वजह हैं. इस फिल्म की तमाम खामियों को वो अपनी अदाकारियों से ढक लेते हैं. उत्कर्ष का काम अच्छा है, कई जगह वो थोड़े लाउड होते हैं लेकिन शायद किरदार ऐसा ही लिखा गया. उनमें अच्छा करने की काफी संभावनाएं हैं. राजपाल यादव ऐसे किरदार काफी कर चुके हैं, उनके करने के लिए कुछ नया नहीं था. परितोष त्रिपाठी वो अकेले बेटे बने हैं जिन्हें पिता के घर से निकाले जाने का दुख है और इस किरदार को उन्होंने कमाल तरीके से निभाया है. नाना के बाद उन्होंने मुझे सबसे ज्यादा इंप्रेस किया. सिमरत कौर कुछ खास नहीं कर पाई, राजेश शर्मा अच्छे लगे हैं.
डायरेक्शन
इस फिल्म को अनिल शर्मा ने लिखा और डायरेक्ट किया है. उन्होंने एक अच्छी कहानी को लोगों तक पहुंचाने को कोशिश की है. अगर वो इसे थोड़ा सा मॉडर्न टच देते, थोड़ा मेलो ड्रामा कम रखते और फिल्म को थोड़ा छोटा करते तो ये और अच्छी लगती लेकिन तब भी वो जो कहना चाहते थे, कह गए.