BHOPAL: खिराजे अकीदत…..शकीला बानो भोपाली
बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई
इक शख़्स सारे शहर को वीरान कर गया।

अलीम बजमी।
शकीला बानो भोपाली। मशहूर कव्वाल। अमीर खुसरो की रिवायत को जिंदा रखने वाली शख्सियत। उनका अंदाज-ए-बयां अलग था।कव्वाली में बेबाकी थी। वे अपने कलाम को बड़े खूबसूरत अंदाज में पेश करती थीं।अपने कलाम के बूते पर उन्होंने अपने प्रशंसकों के दिलों पर राज किया। कव्वाली में उन्होंने एक अलग मुकाम बनाया। 16 दिसंबर 2002 को उन्होंने फानी दुनिया को असविदा कहा था। बहुत कम लोगों को पता होगा कि वे भोपाल गैस त्रासदी का शिकार हुई थीं। अपनी मृत्यु के समय वे लोकप्रियता के शिखर पर थी। उनकी आवाज दुनियाभर में सुनी जा रही थी, उसी दौरान जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट यानी मिक के रिसाव ने उनकी आवाज को खामोशी में बदल दिया तो जहरीली गैस के असर से उनका श्वांस तंत्र गंभीर रूप से प्रभावित हुआ था।

उनकी यादें हमेशा दिलो-दिमाग में हैं।इसके इतर रुढ़िवादिता के खिलाफ शकीला बानो भोपाली एक चेहरा रही। रिवायतों से बेपरवाह। महिला सशक्तिकरण की प्रतीक। सरल, सहज और सौम्य व्यवहार की धनी। हाजिर जवाब भी। उर्दू, अरबी और फारसी की ज्ञाता। लेकिन काबलियत का ठसका नहीं। बालीवुड अदाकारों, शायरों, फिल्मी राइटरों, संगीतकारों आदि से रिश्ता लेकिन फिल्मी ग्लैमर को लेकर कोई भ्रम नहीं। कव्वाली के जरिए देश -दुनिया में नाम कमाया लेकिन अहंकार नहीं किया। व्यवहार में भी विनम्रता झलकती। सादगी बेमिसाल। हृदय से उदार। वे लोगों के बीच भेदभाव नहीं करती। किसी से उम्मीद भी नहीं बांधी। सामाजिक सरोकार से हमेशा नाता रखा। उनका मानवीय पक्ष हमेशा प्रबल रहा। मदद करने का फन आसमानी हुक्म जैसा था। मसलन, किसी को एक हाथ से मदद करो तो दूसरे हाथ को खबर न होने दो। देश-दुनिया में कव्वाली के जरिए भोपाल का नाम रोशन करने वाली शकीला बानो भोपाली की बरसी को लेकर यकीन नहीं होता कि वो अब नहीं हैं। ऐसा लगता है कि फिजा में अब उनकी आवाज सुनाई देगी। वे हम्द के कोई बोल गुनगुना रही होगी, या फिर कोई गजल का मुखड़ा उनके लबों पर होगा। मसलन…..

वो एक शख्स दिल को भला-भला लगे,

उसी से मुकद्दर मेरा खफा-खफा सा लगे।

ये आंधियों की नवाजिश ये जुल्मतों का करम,

के हर चरागे तमन्ना बुझा-बुझा सा लगे

भोपाल से उनका जज्बाती रिश्ता था। लोग उन्हें आपा कहते थे। आपा का रिश्ता उनके अखलाक की वजह से कायम हुआ। आम-खास से मिलने का अंदाज एक जैसा था। भोपालियों को खूब चाहती थीं। उनका बातचीत का अंदाज काफी शाहाना था। जुबान शीरीं थीं। उनसे रिश्ता रखने वालों को बेहतर जिंदगी और किरदार को को लेकर हिदायतें, नसीहतें और समझाइश देती। इनमें छुपा होता था बड़ी बहन या बुजुर्ग का अपने छोटे के लिए लाड़-दुलार। फिल्मी बातों से बेपरवाह रहकर भोपाल में हरेक की फिक्र करती। मुलाकात में एक-एक की खैरियत पूछती। बढ़ते-संवरते भोपाल को लेकर बहुत खुश होती। उनके पिटारे में भोपाल से जुड़े कई किस्से और कहानियां थे। इनमें अदबी महफिल के वाकये। कुछ लतीफे और कुछ जिंदगी की कड़वी हकीकत। वो अपनी गुरबत के दौर को कभी नहीं भूलती। साज-ओ-आवाज से उनका करीबी रिश्ता रहा। शायद यही वजह थी कि बहुत कम वक्त में देश-दुनिया के कव्वाली के नक्शे में अपना नाम कायम कर लिया। लेकिन अफसोस गैस कांड के दौरान मिथाइल आइसो सायनाइड के असर से वे अछूती नहीं रही। गैस के असर से उन्हें पहले दमा हुआ फिर फेफड़ों ने अपनी पूरी ताकत से काम करना बंद कर दिया। साथ ही डायबीटिज, ब्लड प्रेशर के मर्ज ने भी उनको तोड़ दिया। जिस्म के साथ आवाज साथ छोड़ने लगी। इस वजह से कव्वाली के प्रोग्राम करना बंद कर दिए। फिर मुंबई के सेंट जॉर्ज अस्पताल में उन्होंने 2002 में फानी दुनिया को अलविदा कह दिया।    
चुपके-चुपके साज सीखा, चोरी-छिपे गाने लगी
अब थोड़ा फ्लैश बैक में चले तो 09 मई 1942 को जन्मी शकीला बानो भोपाली के पिता अब्दुर्ररशीद खान एवं चाचा अब्दुल कदीर खान उर्दू अदब में काफी दखल रखते थे। उनकी मां जमीला बानो तो हाउस वाइफ थीं। उनका शायरी से कोई सरोकार नहीं था। वहीं उनके चार भाई क्रमश: अनीस मोहम्मद खां, इदरीस मोहम्मद खां और रफीक मोहम्मद खां जबकि इकलौती बहन का नाम जरीना हैं। घर का माहौल उर्दू अदब से जुड़ा होने की वजह से शकीला आपा का ध्यान शायरी की तरफ चला गया। वालिद ने उनका शौक देखकर उन्हें अपने साथ मुशायरों में लेकर जाने लगे। वहां शायरों का कलाम बहुत ध्यान से सुनती। फिर उन्होंने शेरों को गढ़ने के साथ गुनगुना शुरू कर दिया। ऐसे में साज की आवाज उन्हें खींचने लगी। उन्हें ऐसा लगता था कि साज उनकी रुह की झनकार है। वो उन्हें छूने लगी तो घर में चुपके-चुपके साज सीखना शुरू किया। अपने फन का मुजाहिरा सहेलियों के बीच चोरी-छिपे करने लगी। उनके अंदाजे-ए-बया पर सहेलियां तालियां बजाती तो उनका हौसला बढ़ता चला गया। देखते ही देखते सूफियाना कलाम की तरह उनका ध्यान गया तो उन्होंने कम वक्त में ही, हम्द, नात, मनकवत को जान लिया। ये भी जान लीजिए हम्द के मायने अल्लाह की तारीफ में कलाम को कहते हैं। नात में रसूल की शान का बखान किया जाता है तो मनकवत में औलिया का जिक्र होता है।
कव्वाली को मकबरों, मजारों, बाजारों तक ले गई
अमीर खुसरो की विरासत को संभालने वाली आपा ने कव्वाली को जब अपनाया तब भोपाल रिवायती शहर था। यहां पर्दे का बड़ा एहतराम होता था। औरतों को घर की देहरी लांघने की इजाजत नहीं थीं। सख्त पर्दे में ख्वातीन को रहना पड़ता था। रुढ़िवादी और तंग नजरिए का माहौल होने से महिला आजादी तो नाम को भी नहीं थीं। मध्यम वर्गीय परिवार के लिए ये तो और मुश्किलभरा था। लेकिन जिद्दी आपा ने तमाम बंधनों को तोड़ा। मां-बाप की मर्जी के खिलाफ कव्वाली को अपना लिया। ये आसान नहीं था। घर में खूब लान-तान हुई लेकिन हठी शकीला कहां मानने वाली थीं। कव्वाली को दरवेशों के बीच मकबरों, मजारों, बाजारों, शादी-ब्याह की महफिलों आदि की भीड़ तक में ले गई। उर्स में शामिल होने लगी। इसके चर्चे भोपाल रियासत के नवाब हमीदुल्ला खां तक पहुंचे तो उन्होंने महल में प्रोग्राम देने के लिए बुलाना शुरू कर दिया। तब महल में मिली दाद से हौंसला बढ़ा तो वे शहर से बाहर भी जाकर कलाम पेश करने लगी।
दिलीप कुमार ने मुंबई आने को कहा
एक मौका ऐसा आया कि बीआरचोपड़ा अपनी यूनिट के साथ नया दौर फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में बुदनी आए तो वहां उन्हें प्रोग्राम पेश करने के लिए बुलाया गया। वहां शकीला बानो भोपाली ने ऐसा समां बांधा कि ट्रेजिडी किंग के नाम से मशहूर फिल्मी कलाकार दिलीप कुमार ने उन्हें मुंबई आने का न्यौता दिया। इसके बाद 1950-60 के दशक में शकीला बानो भोपाली ने पलटकर नहीं देखा। तकरीबन 45 फिल्मों में काम किया और दो दर्जन मुल्कों में कव्वाली के प्रोग्राम पेश किए। एचएमवी ने उनके हुनर को समझते हुए एक अल्बम भी वर्ष 1971 में निकाला था।
मिसरा समझाती
वो ऐसी कव्वाल थी कि मिसरा सुनाने के साथ उसे समझाती भी थीं। इसके लिए शेर की डिमांड के मुताबिक उसे बकायदा प्ले करती ताकि जिन्हें समझ में नहीं आया, उसे समझ सके। हारमोनियम के सहारे वो घुटनों पर खड़े होकर अपनी बात कहती। उनका ये अंदाज कई मायनों में अनूठा था। उनकी पापुलर कव्वालियों में अब तुम पे छोड़ दिया है, जहर दे या जाम दे। इसके अलावा जाम में शराब नहीं काफी मकबूल हुई कव्वालियों में से हैं। 
दिलीप कुमार और जैकी श्राफ ने मदद की
सुना है कि उनका आखिरी वक्त काफी मुश्किलों में गुजरा। जो कमाया वो बचा के नहीं रख सकी। नतीजे में गुरबत से रिश्ता कायम हो गया। ऐसा सुना है कि जब वे मुंबई के एक अस्पताल में दाखिल थीं तो फिल्मी कलाकार दिलीप कुमार और जैकी श्राफ ने उनकी काफी मदद की। दोनों ने कभी इसका जिक्र नहीं किया।
राजेश खन्ना को अपनी गजलों की किताब दी
वर्ष 1998 में चुनाव प्रचार के सिलसिले में फिल्म अभिनेता राजेश खन्ना भोपाल आए। यहां उन्होंने शकीला बानो भोपाली से मिलने की ख्वाइश जाहिर की। इस पर दूसरे दिन सुबह आठ बजे का वक्त तय हुआ। वे एयरपोर्ट जाते में आपा से मिलेंगे। राजेश खन्ना के अपने गरीबखाने में तशरीफ लाने को लेकर ऐसा लगा कि आपा को नई जिंदगी मिल गई। रेतघाट के सामने स्थित मकान में जब राजेश खन्ना आए तो आपा कहते हुए वे उनसे बड़ी गर्मजोशी से मिले। दोनों की आंखें नम थीं। दस मिनट तक कमरे में खामोशी रही। फिर शकीला बानो भोपाल ने अपने गजल संग्रह की किताब उन्हें दी। किताब पाकर राजेश खन्ना चहक उठे। दोनों ने साथ में काली चाय पी। इस बीच ज्यादातर शकीला बानो की सेहत को लेकर दोनों के बीच ज्यादा बात हुई। राजेश खन्ना सेहतयाबी की दुआ करने के साथ विदा हुए। खास बात ये थी कि राजेश खन्ना के आने पर शकीला आपा ने घर में कोई खास इंतजाम नहीं किया था। उनका मानना था कि हम जैसे और जिस हाल में रहते हैं, उसी कैफियत में मिलना अच्छा है। दोनों के बीच बहन-भाई का रिश्ता रहा। राजेश खन्ना भी शकीला बानो भोपाली को आपा कहते थे। इस लम्हे का मैं गवाह हूं।
फिल्मों में आवाज दी
जानकारों की मानें तो खास तौर पर सांझ की बेला, आलम आरा, फौलादी मुक्का, रांग नंबर टैक्सी ड्राइवर, परियों की शहजादी, गद्दार, चोरों की बारात,सरहदी लुटेरा, आज और कल, डाकू मान सिंह,दस्तक, मुंबई का बाबू, जीनत, सीआईडी जैसी फिल्मों के लिए उन्होंने अपनी आवाज दी। हिंदी, उर्दू के अलावा गुजराती में भी कव्वाली गाई हैं। 

खिराजे अकीदत: अब शकीला बानो भोपाली यानि आपा नहीं है। दुआ है कि अल्लाह उन्हें जन्नत में आला मुकाम अता करें। लेकिन एक अफसोस है। भोपाल को उन्होंने टूटकर चाहा लेकिन भोपालियों ने उनकी मोहब्बत का कर्ज अदा नहीं किया। इस बात का गिला है कि राज्य शासन ने भी उनकी कद्र नहीं की। भारत सरकार ने भी पद्मश्री के लायक भी नहीं समझा। सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर अप्पा को लेकर चुप्पी एहसान फरामोशी की इंतिहा है। वो हिंदुस्तान की पहली ऐसी महिला थी, जिन्होंने सामाजिक बेड़ियों को तोड़कर महिला सशक्तिकरण को नई दिशा दी। देश-दुनिया में भोपाल को ख्याति दिलाई। रोशन ख्याल होने के साथ उन्होंने मर्यादा की हद को कभी नहीं लांघा। भोपाल के लिए उनका दिल धड़कता था। यही वजह थी कि वे चाहे कहीं भी रहे लेकिन अपनी सालगिरह भोपाल में अपनों के बीच मनाती थीं। उनकी बरसी पर उन्हें खिराजे अकीदत पेश करता हूं।

एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा
आँख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा


फेसबुक वाल से साभार।

Exit mobile version