RBI: क्या मतभेदों के चलते हटाए गए शक्तिकांत दास..? पहले भी आरबीआई गवर्नरों से नहीं बैठी पटरी…!
नई दिल्ली। आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास का कार्यकाल 10 दिसंबर को समाप्त होने जा रहा है। 11 दिसंबर से संजय मल्होत्रा नए गवर्नर के रूप में पदभार संभाल लेंगे। अब वैसे तो क्योंकि शक्तिकांत दास का कार्यकाल खत्म हुआ है, इसलिए नए गवर्नर आने वाले हैं, लेकिन मोदी सरकार के पिछले 10 सालों में आरबीआई के साथ रिश्ते कुछ ऐसे रहे हैं जहां पर विचारों के मतभेद, पॉलिसियों को लेकर विवाद काफी प्रबल दिखे।
ऐसे में अब संजय मल्होत्रा के सामने ज्यादा चुनौतियां आने वाली हैं। वे किस तरह से आरबीआई की स्वतंत्रता को बचाते हुए सरकार के साथ तालमेल बैठाएंगे, इसी पर उनका कार्यकाल निर्भर करने वाला है।
बात अगर शक्तिकांत दास की ही की जाए तो यहां भी सरकार के साथ रिश्ते उतार-चढ़ाव वाले रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तब देखने को मिला जब महंगाई को काबू में करने के लिए केंद्र सरकार ने रेपो रेट में कमी लाने की अपील की थी। सरकार का तर्क था कि अगर इस समय रेपो रेट कम किया जाएगा, उससे धीमी पड़ी अर्थव्यवस्था को ताकत मिल सकती है।
असल में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण चाहती थीं कि बैंक इंटरेस्ट को एफोर्डेबल रेंज में ही रखा जाए, इससे सभी इंडस्ट्री को मजबूत सपोर्ट मिलता। केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने सामने से कहा था कि आरबीआई को रेपो रेट में कटौती करनी चाहिए, इसी से इकोनॉमी को जरूरी बूस्ट मिल सकता है। लेकिन सरकार की इन अपीलों के बावजूद आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने रेपो रेट को ना बदलने का फैसला किया, इसे कई महीनों की तरह फिर 6.50% पर रखा गया। माना जा रहा है कि सरकार इस रवैये से खुश नहीं थी, दूसरी तरफ दास की अपने तर्क थे।
उर्जित पटेल और मोदी सरकार के साथ रिश्ते
अब यह जो तकरार देखने को मिली है, ऐसा ही हाल पिछले कुछ पिछले पूर्व आरबीआई गवर्नर्स के साथ भी होता दिख चुका है। शक्तिकांत दास से पहले उर्जित पटेल आरबीआई गवर्नर के रूप में काम कर रहे थे। लेकिन उनका तो अचानक से ही इस्तीफा हो गया था, कार्यकाल भी पूरा नहीं हो पाया था।
असल में केंद्र सरकार की सारी तकरार आरबीआई के खजाने में पड़े सिक्योरिटी डिपॉजिट को लेकर थी। सरकार चाहती थी कि उस रिजर्व का ज्यादा हिस्सा उन्हें दे दिया जाए। इसके ऊपर सरकार चाहती थी कि आरबीआई सेंट्रल बोर्ड को और ज्यादा अधिकार दिए जाएं, उसे और ज्यादा ताकतवर बनाया जाए। हालात ऐसे बन गए थे तब कि सरकार को पहली बार आरबीआई कानून के सेक्शन 7 के तहत गवर्नर के साथ एक औपचारिक बैठक करनी पड़ गई थी।
रघुराम राजन के साथ भी..?
रघुराम राजन 2013 से 2016 तक आरबीआई के गवर्नर थे। उन्होंने कुछ समय मनमोहन सिंह की सरकार के साथ भी काम किया तो वहीं बाद में पीएम मोदी के साथ भी तालमेल बैठाया। अब राजन की विचारधारा एकदम स्पष्ट थी, वे किसी भी कीमत पर ‘Yes Man’ नहीं बनना चाहते थे, वे तो मानते हैं कि मना करने की ताकत आरबीआई के पास हमेशा ही होनी चाहिए। इसी वजह से जब फाइनेंस बिल में एक संशोधन सरकार ने बिना आरबीआई से पूछे कर दिया था, उस पर खूब बवाल हुआ, खुद राजन वित्त मंत्री से मिले और अपना विरोध दर्ज करवाया। उसके बाद सरकार को ही वो संशोधन वापस लेना पड़ा।
नोट बंदी से सहमत नहीं थे राजन
बड़ी बात यह है कि मोदी सरकार ने जो नोटबंदी की थी, उसको लेकर भी राजन ज्यादा खुश नहीं थे। जब उस योजना के बारे में सिर्फ सोचा जा रहा था, तभी राजन ने सरकार को उस कदम के बारे में सबकुछ समझाया था। उनकी तरफ से एक रिपोर्ट तैयार कर दी गई थी। जिसमें कहा गया था कि बिना नोटबंदी के भी कुछ परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। ऐसे में राजन का जब कार्यकाल समाप्त हुआ, सरकार के साथ उनके रिश्ते तल्ख ही रहे। वैसे पिछली सरकारों के दौरान भी सरकार और आरबीआई के बीच में रिश्ते कभी ज्यादा मधुर दिखाई नहीं पड़े।