Editorial
स्पेक्ट्रम में घाटा

इस बार फाइव जी स्पेक्ट्रम के आवंटन को लेकर सरकार की तरफ से जल्दबाजी हुई, या कोई और मामला, आवंटन घाटे का सौदा रहा। तय राशि की तुलना में छठवें हिस्से की भी बोली नहीं लगी। लेकिन खरीदने के बाद ही मोबाइल टैरिफ दरों में ताबड़तोड़ इजाफा कर दिया गया। एक बात और, ये स्पेक्ट्रम जिसके अधिकार में है, वो बीएसएनएल अभी तक फोर जी ही नहीं हो पाया और लगभग बंद होने की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। साल 2015 में स्पेक्ट्रम की नीलामी से सरकार को 1.09 लाख करोड़ मिले थे। जबकि इस साल 2024 में स्पेक्ट्रम की नीलामी से सरकार को सिर्फ 11,340 करोड़ की आमदनी हुई है।
देखा जाए तो 119 करोड़ मोबाइल और 92.4 करोड़ इंटरनेट ब्रॉडबैंड कनेक्शन वाले देश में सरकार की आमदनी कम होती जाए, इसके साथ ही टेलीकॉम कम्पनियों का घाटा और आम लोगों की जेब पर बोझ बढ़े तो यह चिंता की बात तो है। विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पीछे अधकचरे तरीके से लागू किए गए नए टेलीकॉम कानून ही प्रमुख कारण हैं। संदर्भ के अनुसार जुलाई 2022 में जारी मसौदे में टेलीकम्युनिकेशन का दायरा बहुत बड़ा था।
लेकिन दिसम्बर 2023 में संसद से पारित कानून में टेलीकम्युनिकेशन के दायरे से ओटीटी, इंटरनेट आधारित कॉल्स और मैसेजिंग एप्स को हटा दिया गया। जबकि देश की बहुत बड़ी आबादी नेटफ्लिक्स, जूम और वॉट्सएप आदि का इस्तेमाल करती है। विदेशी कम्पनियों से जुड़ी इन सेवाओं को कानून, लाइसेंस, टैक्स के दायरे से बाहर रखने का न तो कारण समझ आया और न ही कोई तथ्य सामने आया।
पुरानी बात जरूर है, लेकिन स्पेक्ट्रम घोटाले पर यूपीए सरकार की बहुत फजीहत हुई थी। हालांकि इसकी शुरुआत स्व. प्रमोद महाजन के समय से हुई थी। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के अनुसार स्पेक्ट्रम का आवंटन नीलामी के आधार पर ही होना चाहिए। लेकिन नए कानून में सैटेलाइट जैसी सेवाओं के लिए प्रशासनिक आधार पर स्पेक्ट्रम के आवंटन का कानून है। एलन मस्क जैसे दिग्गजों के वर्चस्व वाले सैटेलाइट इंटरनेट सेवाओं वाले सेक्टर के लाइसेंस और इस पर नियंत्रण के लिए भारत में प्रभावी कानून ही नहीं है। रियायती दरों पर स्पेक्ट्र्रम आवंटन से न केवल सरकारी खजाने को नुकसान हो रहा है, अपितु  सैटेलाइट इंटरनेट के निर्बाध संचालन से राष्ट्रीय सुरक्षा को भी खतरा बढ़ सकता है।
5जी के नाम पर डेटा प्लान की दरों में 46 फीसदी बढ़ोतरी से मोबाइल कम्पनियों की सालाना आमदनी 47,500 हजार करोड़ होने के साथ उनके शेयर की वैल्यू भी बढ़ेगी। इन कंपनियों ने टैरिफ दरों को 10 से 25 प्रतिशत बढ़ा दिया है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये है कि मार्च 2023 में मोबाइल कम्पनियों का घाटा लगभग 6.40 लाख करोड़ हो गया है। टेक्नोलॉजी, रिसर्च और 12 लाख नए मोबाइल टावरों को लगाने के लिए टेलीकॉम कम्पनियों के पास पैसे नहीं हैं। इसीलिए 5जी के नाम पर पैसे चुकाने वाले ग्राहकों को सही सेवा नहीं मिल रही।
एक आंकड़ा और आया है। इसके अनुसार अमेरिका में एक जीबी डेटा की औसत कीमत 5.37 डॉलर है, जबकि भारत में  0.16 डॉलर। भारत में पिछले 10 सालों में डेटा की खपत 43 गुना बढ़ी है। इसका फायदा ओटीटी, इंटरनेट आधारित कॉलिंग सेवाओं और मैसेजिंग एप्स को हो रहा है। लेकिन वो हमारे कानून के दायरे में ही नहीं रखे गए, साथ ही उनसे लाइसेंस फीस की वसूली भी नहीं होती है। इससे एक तरफ सरकार को चपत लग रही है तो दूसरी ओर मोबाइल कम्पनियों का घाटा बढ़ रहा है।
मोबाइल टॉवरों की स्थापना जिस भूमि में होती है, वह विषय संविधान के अनुसार राज्य सरकारों के अधीन है। बिजली कानून से जुड़ा विषय भी समवर्ती सूची में है। उसके बावजूद टेलीकॉम कानूनों को बनाने और लागू करने में राज्य सरकारों के साथ किसी तरह का परामर्श नहीं किया गया। डीएनडी यानी डु नॉट डिस्टर्ब, अनचाहे कॉल्स और साइबर अपराध से लोगों को बचाने के बारे में कई सालों से सिर्फ शोर ही सुनाई दे रहा है। अनचाहे कॉल्स से जुड़े कानून की धारा 28 के तहत नियम ही नहीं बन पाए हैं।
और तो और, नए कानून में शामिल 62 धाराओं में से लगभग 39 को ही फिलहाल लागू किया गया और 23 धाराओं से जुड़े नियम अभी जारी नहीं किए गए। अनचाहे कॉल और मैसेजों से मुक्ति के लिए कानून की धारा-28 में प्रावधान हैं। लेकिन उससे जुड़े नियमों को संसद में पेश करना बाकी है। ऐसी ही गफलत दूसरे कानूनों में है।
अब इसे सरकार की उदासीनता मान कर नजरअंदाज करना उचित नहीं होगा। सही बात तो यह है कि यहां दाल में कुछ नहीं, काफी कुछ काला नजर आ रहा है। जब यूपीए सरकार स्पेक्ट्रम मामले में उलझी, तब इतना घाटा नहीं हुआ, तो अब जो हजारों करोड़ का घाटा हुआ है, उसकी बात क्यों नहीं उठाई जा रही? कहीं ये भी घोटाले की जद में नहीं आ रहा है? यदि कोई विपक्षी राज्य सरकार होती तो अभी तक कई लोग जेल भी पहुंचा दिए जाते। केवल विचार नहीं, इस मुद्दे पर मोबाइल उपभोक्ताओं को भी आवाज उठाना चाहिए। सरकार को घाटा हो रहा है और उपभोक्ता लुट रहा है। दोनों बोझ आखिर जनता पर ही पडऩा है।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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